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________________ २६८ यशस्तिकपम्पूमध्ये सदस्य वामप्रसिरितुलित महाचर्भयते खल्विदीपर्वमवधार्थम् । मासिथरसरहस्पास्वादकोषिदस्प हि लोकस्य कापरिग्रहः पुमः पुनः परिमाक्तिविलासिनीसभाहरण पन्दीमहणमिव पर्वितचर्वणमिव बनतः साधु प्रहादयितुममम् । यतः । सत्ताहवं पुंसा मवि भवति स्वामदेव योगासु । मिति घीसमम्मी मावि wicial सकरवा पोता युवतिऔरती तस्य वा सोहरी सवित्रीति । गुजमिदं पार्ष: भारकुवाः रपया रोषन्ते ॥२०६॥ भरत पवायमिस्थमाइस्तिोश्वत्थेन कविना परमहिम्नः पुमहिला परिजनवनिता विनोनितारप । रविरसभा रास्ताफ्स्यरचास्य गृहकास्थः ॥३०॥ कृत्रिम श्री के साथ भोग करने की इच्छा नही होती उसीप्रकार सो ब्रह्मचारी को स्त्री के साथ रतिविलास करने की इच्छा नहीं होती। उसे कुटुम्बर्ग शत्रु-सा दिखाई देता है। अर्थात्-वह कुटुम्बी जनों से स्नेह नहीं करता वया उसे धन मुर्दे को शृङ्गारित करने के समान है। अर्थात्-उसे धम में रुचि नहीं होती ।। २०४॥ अतः हे राजन् ! यह मंत्री जो बाहिरी प्रसिद्धि के कारण दुराचार से व्याप्त ब्रह्मचर्यन्त्रत का पालन करता है, उसमें आपको निश्चय से यह अभिप्राय समझना चाहिए। निश्चय से कामदेव संबंधी राग के रहस्य (गोप्यतत्व) का आस्वाद करने में प्रवीण पुरुष के लिए विवाह करना और वार-बार कामी पुरुषों द्वारा मर्दित की हुई वेश्या को अपने गृह में रखना ये दोनों कार्य उसप्रकार उसके चित्त को आनन्दित करने के लिए अच्छी तरह समर्थ नहीं हैं जिसप्रकार कारागार ( जेलखाने ) में पतन और पर्वित-चर्षण ( खाए हुए पदार्थ का फिर से खाना ) चित्त को आनन्दित करने में अच्छी तरह समर्थ नहीं होता । अर्थात्-जिसप्रकार जेलखाने में पतन और चर्वितचर्वण ये दोनों वस्तुएँ सुचारुरूप से चित्त को सुखी बनाने में समर्थ नहीं है उसीप्रकार ऐसे मानव के लिए, जो कि कामदेव के गग का गोप्यतत्व भोगने में प्रवीण है, विवाह बन्धन और कामी पुरुषों द्वारा वार वार भोगी हुई वेश्या का गृह में रखना चित्त को सुखी बनाने में समर्थ नहीं होता। क्योंकि यह मन्त्री यह कहता है और जानता है कि हे देव ! यदि पुरुषों के लिए अपनी खियों में रतिविलास संबंधी गोप्यतत्व का सुख प्राप्त होता है तो श्रीनारायण लक्ष्मी के साथ रविविलास करने में निरादर करते हुए गोप-कन्याओं में सम्पट क्यों हुए ? २०५१। क्योंकि प्रस्तुत मन्त्री अपने से छोटी उमरखाली श्री को पत्री, यवती श्री को बहिन और वृद्ध स्त्री को माता मानता है, यह उचित ही है. क्योंकि उसे पीन (कड़े) व उनत कुच (स्तन) कलशोंवाली एवं शिथिल स्तनोंवाली स्त्रियाँ रुचती हैं--प्यारी लगती हैं। अर्थात् क्योंकि पुत्री व वहिन-श्रादि का संबंध स्थापित किये विना खियों से प्यार ही किसप्रकार होसकता है? अपि तु नहीं होसकता ॥२०६॥ इसीकारण हे राजन् ! * 'भश्वस्थ' नामके कवि ने आपके इस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की हँसी उड़ाते हुए निमप्रकार कहा है दूसरों की सियाँ इस 'पामरोदार' मन्त्री को विवाहित स्त्रियों है और कुटुम्प-सियों ( भोजआई व पुत्रवधू-आदि) इसकी कदासियाँ हैं एवं विधवाएँ इसके रतिविलास-रस की पात्र हैं तथा तपस्विनी लियों इसकी गृहदासियों । मात्-जिसप्रकार गृहवासियों उपभोग के योग्य होती हैं इसीप्रकार • 'पोता' । १. उपमालंकार । १. आपालंकार । ३. एकोक्ति अलंकार * प्रस्तुत शास्त्रकार पाचार्य श्रमसोमदेवसूरि का कम्पित नाम ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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