________________
तृतीय आवास:
भवतु वा मा वा भवेति: परास्मनि । तथापि चेसे प्रीतिर्यतीन कुरु नियोगिनः ॥ १०३॥ अपि देव x महाधावितस्य महालक्ष्मी राक्षसीविलासहामितस्य परमाल करेनिनमाता हस्ताशुविस्पर्शरक्षणमिव । यतः ।
चावेश योषा परिवार: शत्रुवनाकार: मृतमण्डनमिव
२६७
धनं स्मरस्रे नरे नियतम् ॥ २२४ ॥ भावार्थ-नीतिकार आचार्यश्री ने कहा है कि 'कौन-सा प्रयोजनार्थी मनुष्य स्वार्थसिद्धि के निमित गाय से 'दूध चाहनेवाले मनुष्य के समान उसकी प्रयोजन-सिद्धि करनेवाले दूसरे मनुष्य के आचार पर विचार करता हूँ ? अपि तु कोई नहीं करता। अर्थात् जिसप्रकार गाय से दूध चाहनेवाला उसके आचार ( अपवित्र वस्तु का भक्षण करना चादि) पर दृष्टिपात नहीं करता इसीप्रकार प्रयोजनार्थी भी 'अर्थी वोषं न पश्यति' – स्वार्थसिद्धि का इच्छुक दूसरे के दोष नहीं देखता इस नीति के अनुसार अपनी प्रयोजन-सिद्धि के लिए दूसरे के दोपों पर दृष्टिपात न करे। शुक्र * विद्वान ने भी प्रयोजनार्थी का उक्त कर्तव्य बताते हुए उक्त दृष्टान्त दिया है। प्रकरण की बात यह है कि शङ्खनक नाम का गुमवर यशोधर महाराज से 'पामरोदार' नाम के मंत्री की कटु आलोचना करता हुआ कहता है कि हे राजन् नीतिकारों की उक्त मान्यता के अनुसार आपको उक्त अयोग्य व दुष्ट पामरोदार मंत्री के स्थान पर ऐसे प्रशन्त पुरुष को मंत्री पद पर अधिष्ठित करना चाहिए, जो उक्त कर्तव्य के निर्वाह की पर्याप्त योग्यता रखा हुआ आपका प्रयोजन ( राज्य की श्रीवृद्धि आदि ) सिद्ध कर सके, चाहे भले ही उसमें अन्य दोष वर्तमान हो, उन पर प्रयोजनार्थी आपको उसप्रकार दृष्टिपात नहीं करना चाहिए जिसप्रकार दूध का इस्छुक गाय के दोषों पर दृष्टिपात नहीं करता || २०२ || हे राजन! मन्त्री में राजा के प्रति उत्कृष्ट भक्ति होनी चाहिए, उसमें व्रतों का धारण हो अथवा न भी हो । तथापि यदि आप हिंसदि व्रतों के पालन करनेवाले को मन्त्री पद पर आरूढ़ करने के पक्ष में हैं या प्रीति रखते हैं तब तो आप बनवासी सन्मा को मन्त्री पद पर आरूद कीजिए । भावार्थ - जिसप्रकार बनवासी साधु लोग केवल व्रतधारक होने से मन्त्री आदि अधिकारी नहीं होसकते उसीप्रकार प्रकरण में आपकी भक्ति से शून्य पामरोहार' नाम का अयोग्य मन्त्री भी केवल बाहिरी ( दिखाऊ : अहिंसादि व्रतों का धारक होने से मन्त्री होने का पात्र नहीं है, क्योंकि उसमें मंत्री के योग्य गुण ( राजा के प्रति भक्ति आदि ) नहीं है ४ ।। २०३ ।।
हे राजन् ! इस 'पामरोदार' नामके मन्त्री का, जिसका हृदय स्त्री- भोग की महातृष्णा से तर है और जिसकी दुराचार प्रवृत्ति महालक्ष्मी ( राज्यसंपत्ति रूपी राक्षसी के भोग से उत्पन्न हुई है. ब्रह्मचर्यपालन उसप्रकार अशक्य या हास्यास्पद है जिसप्रकार मस्तक तक बिना में डूबे हुए पुरुष का अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठा कर ऐसा कहना कि 'मेरे हाथों पर विश नहीं लगी' अर्थात्-हाथों को विस्पर्श से बचाना अशक्य या हास्यास्पद होता है ।
क्योंकि यह निश्चित है कि कामदेव के बाणों से घायल न होनेवाले ( श्री-संभोग के त्यागीसचे ब्रह्मचारी) पुरुष के लिए स्त्री तृण-कामिनी सरीखी है। अर्थात्-जिसप्रकार घास-फूस से बनी हुई
* उक शुद्धपारः खं०ग०च० प्रतितः संगृहीतः । सुप्रतौ तु 'महाघात' पाठः परन्त्रार्थकः । १. तथा च सोमदेवसूरिः गोरिव दुग्धार्थी को नाम कार्यार्थी परस्परं विचारयतेि ।। १ ।
२. तथा च शुकः कार्यार्थी न विचारं च कुरुते च प्रियान्वितः । दुम्बार्थी च शोधेनरने यस्य प्रभुक्षणात् ॥२॥ नीतिवाक्यामृत ( भा० टी०) ६०४२१ से संकलित - सम्पादक
३. आपालंकार | ४. आक्षेपालंकार ।
३८