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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये केवलं प्रभुशक्तिपशास्त्र महत्वमेव माहीपत: सत्पुरुषसंपवः कारणम् । पसः ।
अधनस्यापि महीशो महीयसो भवति भृत्यसंपत्तिः । शुष्कस्यापि हि सरस: पाखितले पावपविभूतिः ॥ १९९॥ कामशोचितोत्सेका समिठ येषां न सेवका; । राज्यनीविजयश्रीरच कुतस्तेषां महीभुजाम् ॥२०॥
देव, विपहावग्रहाभ्यो हीनामां दीनानां च प्रजामामवदानप्रक्षामाभ्यां रक्षणमषाणं बान्तहिरवान्तरायो, कोपर्द स्थितावस्थितीनां प्रकृतीनो विरागकारणपरिहारेगौफमुखीकरण संक्षेपेण मन्त्रिण; कर्म। तब देवेनानवधार्याभ्यदेव किधि सचिवापस प्रति गुणोधास्वापसमाचरितम् । यत:।
तन्नमित्रातिप्रीप्ति शकोशोषितस्धितिः । पश्चातानि मधेमक्तः सोऽमात्यः पृथिवीपतेः ॥२०॥
कार्याथिनो हि लोकस्य किमन्याचारचिन्तथा । दुग्धार्थी का पुमान्नाम गवाचारं विधारयेत् ॥३०२॥ हे राजन ! केवल प्रभुशक्ति (कोश ब सैनिकशक्ति ) की पेशलता ( सौन्दर्य या विशेषता ) रूप महत्त्व ही राजा को सत्पुरुषरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति में कारण है। अर्थात-प्रभुत्वशक्ति की महत्ता से ही राजा को प्रशस्त मन्त्री-श्रादि अधिकारी वर्गरूप लक्ष्मी प्राप्त होती है। क्योंकि
जिसप्रकार निश्चय से जल-शून्य तालाब के पुलयन्धन के अधोभाग पर वृक्षों की सम्पत्ति पाई जाती है उसीप्रकार उस राजा के, जो कि निर्धन होता हुआ भी प्रभुशक्ति से महान है, सेवकरूप विभूति पाई जाती है 1128811 जिन राजाओं के मन्त्री-आदि सेवक शास्त्र (राजनैतिक मान-आदि ) व शस संचालन की योग्यता से उत्कृष्ट नहीं है, उनको राज्यलक्ष्मी व विजयश्री किसप्रकार प्राप्त होसकती है? अपि तु नहीं प्राप्त होसकती ||२००। हे राजन् ! संक्षेप से मन्त्रियों का निम्रप्रकार कर्तव्य है.
राजा के साथ युद्ध न करनेवाली ( शिष्ट ) प्रजा की रक्षा करना और फत्तव्य-भ्रष्ट ( दुष्ट ) प्रजा का अनादर-निग्रह करना एवं दीन ( तिरस्कृत-गरीब । प्रजा का युद्ध करने का साहस स्वण्डित करते हुए रक्षण करना। अर्थात्-दीन प्रजा की इसप्रकार रक्षा करना, जिससे यह भविष्य में राजा के साथ बगावत करने का दुस्साहस न कर सके तथा धनादि देकर उसकी देख-रेख रखना। इसीप्नकार मन्त्रियों के अन्तरङ्ग संबंधी क्रोधों द्वारा तथा वाहिरी झूठे विस्तृत क्रोधों द्वारा दुष्ट स्थिति को प्राप्त हुई प्रकृतियों ( अमात्य आदि अधिकारी वर्गो व नगरवासी प्रजा के लोगों के विरुद्ध -- कुपित होने के कारणों के त्याग द्वारा अनुकूल रखना। अर्थात उन्हें ऐसा अनुकूल रखना जिन उपायों से ने कभी विरुद्ध न हो सकें। हे राजन् ! आपने उक्त मेरे द्वारा कहा हुआ ( मन्त्री-कर्तव्य ) न जान कर समस्त मन्त्रियों में निकृष्ट उस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की ऐसी गुरण-वर्णन की चपलता मेरे सामने प्रकट की, जिसमें उसके दूसरे ही कुछ बाहिरी ( दिखाऊ । गुरण ( वह वनस्पति नहीं छेदता व जल प्रासुक करके पी हैआदि गुण) पाए जाते हैं। क्योकि
हे देव ! वहीं योग्य पुरुष राजा का अमात्य ( मंत्री ) होसकता है, जो राजा की सेना व मित्रों के साथ प्रेम प्रकट करता है और राष्ट्र व खजाने के अनुसार प्रवृत्ति ( आमदनी के अनुकूल खर्च करना आदि ) करता हुआ सजा का भक्त है || २०१।। जिसप्रकार दूध-प्राप्ति का इच्छुक कौन पुरुष गाय के आचार ( कूड़ा-ख.ना-श्रादि ख टा प्रसि) पर विचार करता है ? अपि तु कोई नहीं करता उसीप्रकार निश्चय से प्रयोजन (सद्धि चाहनेवाले पुरुष को उसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाले दूसरे पुरुष के प्राचार ( जघन्य आचरण) की चिन्ता करने से क्या लाभ है? अपि तु कोई लाभ नही।
तथा श सोमदेवमूरिः-'कोशदण्डबलं प्रभुशरिक नीतिवाक्यामृत से संकालत--सम्पादक १, दृशन्तालंकार। २. लंकार । ३. जाति अलंकार ।