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________________ तृतीय भान्यासः है बेहोक्यनिकेशवास भुषमोदन्ते स्वमेवारसस्तसाम कथवेवमेव भवतः पादप्रणामः हतः। *काशिम्पायौविभिः प्रविले दुत्वारिणो मरित्रणो नैतामदुताकृती विभिमई प्रहाय I वनामये ॥१९॥ चातुर्य बोक्ने+वालुब्ने मन्त्रिणाम् । रामोऽम्प पब वे भृत्याः समरे विधुरे ये ॥१९॥ सविपरित तत्रैवैतत्पशाम्यसि भूपती मवति ५ इह न्यायान्यावप्रसर्कणकर्कशः। सल्याहवये मन्दोचोगे तवाल्यसूसोन्मुख सिप इव नृपे हप्ता भूस्या कविकुर्वते ॥१९॥ तभा प्रकृतिविकृतिः कोशोहकान्तिः प्रजाप्रक्षपागतिः सजनविरतिमित्राप्रीति कुलीमालास्थितिः । असचिवरते रावयेतचर्व मनु जायते सहनु स पीयादेवी बलातुप्यते ॥१९०१) वेष, संजातराजपुतसमागमापी अयोध्यासापपादपा तेव न जातु सपन्सरपिहितस्पृहावशिष्टते। मन्त्री में पाया जानेवाला उक्तप्रकार का बाहिरी कर्तव्य-विधान किस पुरुष के हृदय में अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न नहीं करता? अपि तु सभी में प्रसनता उत्पन्न करता है परन्तु मैं जानता हूँ कि आपके मन्त्री की उदयन्वेष्टा ( अभिप्राय) उसकी माता में भी कभी भी मार्दवमयी-विनयशील-नहीं है॥४॥ मा 'शान' नाम का यावर वासुदेव । विश्णु ? मे पॅलता है- जगदाधार ! तीन लोक के वृत्तान्त में पाप ही सन्मान के पात्र हो, अतः आप मेरा एक वचन सत्य कहिए, क्योंकि मैंने आपके परण कमलों में प्रगाम किया है। ब्रह्मा ने कौन से निर्दयी परमाणुओं द्वारा इन दुराचारी मन्त्रियों की सृष्टि की ? जिससे इस मस्त्रियों को कोमल प्रकृविशाली बनाने के लिए मैं सृष्टिकर्ता को आनन्दित करके उन मन्त्रियों की पूजा करूँ ।। १६५ ।। मन्त्रीलोग विशेष धोखा देने में और लाँच खाने में चतुर होते हैं परन्तु युद्ध के अवसर पर और कष्ट पड़ने पर सहायता देनेवाले जगत्प्रसिद्ध सेवक ( अधिकारीपर्ण) राजा के दूसरे ही होते हैं। ॥ १६६ ।। षही राजा मन्त्रियों का दुष्ट प्राचार शान्त कर सकता है, जो कि इन मस्त्रियों के न्याय व अन्याय-युक्त कार्यों के विचार में कठोर है। अर्थात्-न्याय-युक्त कर्तव्य-पालन करनेवाले मन्त्रियों के लिए धनादि देकर सन्मानित करता है और अन्यायी दुष्ट मन्त्रियों के लिए कठोर दर देता है। इसके विपरीत दयालु हृदय, आलसी और क्षणिक सुखों में उत्कण्ठित हुए राजा के प्रति मदोन्मत्त हुए मन्त्रीलोग फिसप्रकार से उसप्रकार विकृत । उपद्रव करनेवाले) नहीं होते ? अपि तु अवश्य पिकत होते हैं जिसप्रकार त्रियाँ दयाल, आलसी एवं तात्कालिक विषयसुख में लम्पट हुए राजा के प्रति विकत ( उच्छल ) होजाती हूँ ।। १६७il दुष्टमन्त्रीषाले राजा के राज्य में निश्चय से निम्नप्रकार के अमर्थ अवश्य होते हैं। १. अमात्य-श्रादि अधिकारीवर्ग व प्रजा के लोग उच्छ्क ल होजाते हैं। २. खाने का धन नष्ट होजाता है। ३. प्रजा नष्ट होजाती है। ४. कुटुम्ब विरुद्ध होजाता है। ५. मित्र शत्रुता करने लगते हैं। ६. कुलीन पुरुष दूसरे देश को चले जाते हैं। ७. तत्पश्चात् यह राजा शत्रुओं और दायादों। (पुत्र व बन्धुजनों ) द्वारा बलात्कार पूर्वक नष्ट कर दिया जाता है" ।। १८ ॥ . हे राजन् ! यह राज्यज्ञक्ष्मी राजपुत्र का आलिङ्गन करती हुई भी इसप्रकार दूसरे राजा के साथ भाशिङ्गान करने की इच्छा करती हुई स्थित रहती है जिस प्रकार निकटवर्ती वृक्ष का आश्रय करनेवाली लवा दूसरे वृष का भाभय करने की इच्छा करती हुई स्थित रहती है। [ 'सामानये' क० । + 'उक शुलपाठः क. प्रतितः समवृत्तः । मु. प्रतौलमालचे पाठः । 1. आक्षेपालंकार पं समुरचयालकार। २. प्रश्नोत्तरालंकार। ३. जाति-अलंकार । ४. उपमालबार । दामादौ पायाभदो' इतिपत्रमाव संमत टीका . ४४५ से समुसत--सम्पादक । ५. समुरचयालंकार क दोपकासकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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