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________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये पछिकाभ्यः । अध्यात्पुमस्तमसः, यतः समभूनभसि कुम्मिनां केसरीकाकारणवैरी प्रहाणां राहु खपालापुषस्य साधनसमृद्धिसमये मुहिणामोवरकन्दलात, यस्मादजायत विद्वेषभेषजारजगद्वितीतिरतिबोडको नार। पर वनविद्युनिमन्धनात् , यतोऽभवदम्भोधिषु सखिलसवसंहारप्रबलो वडवानलः । तथैकं वितेः, यतः समुपादि निखिलेश्वपि भुवनेषु स्वयंभुदो वरप्रदानालसद्ध मोल्सकानां लोकानां प्रसारकस्तारको नामासुरः। संप्रति तु भवाशर्महामहोशः कलिकालस्यातीवतुच्छीतस्वादाम गगनचरसमेक एवामीषामटादशानामपि खलकुटामा भारमाधारं च विभसि । वतः कथं नाम स्वप्नेऽप्यस्थ साधुता संन्नायी ; • पामे च । असुरमयस्तिमिरमयः स्तेनाकारोपि कौणपाफा: 1 देव दिवापि प्रभवति ससिवजनो यस्तदारवर्यम् ॥१९३॥ दीर्घमवेक्षणं । सरभसा प्रीतिकमः संभ्रमः प्रत्यासन्नमयासनं प्रियकवाईचारे महामादरः । बालोऽयं सचित्रेषु चेष्टितविधिः काम न क मादयश्चित्तेहा तु न जातु माघमयी मन्ये जमन्यामपि ॥१९॥ कोठाने के उपाय-समूहों से उत्पन्न हुआ। इसीप्रकार १५ वाँ दुष्टकुल उस अन्धकार से उत्पन्न हुश्रा, जिससे उत्पन्न हुए दुष्टकुल से ऐसा राहु प्रकट हुआ, जो कि सूर्य और चन्द्रमा आदि का उसप्रकार विना कारण का शत्र है जिसप्रकार सिम हाधियों का स्वाभाविक शत्रु होता है और १६ वाँ दुष्टफूल खण्वपर वायुधः ( रुद्र) के वशीकरण के अवसर पर होनेवाले ब्रह्मा और विष्णु के युद्ध से उत्पन्न हुआ, क्योंकि उसी सोलहवें दुष्टकुल से ऐसा नारद, जिसका मनोरथ पृथिवीमण्डल संबंधी विप्रीति (संग्राम) होने में अनराग-युक्त है, उसप्रकार उत्पन्न हुआ था जिसप्रकार कडबी औषधि विप्रीति (द्वेष ) सम्पन्न करती है एवं १७ वाँ दुष्टकुल उस वन व विद्युत ( विजली ) के निर्मन्थन ( रगड़) से उत्पन्न हुआ है, जिससे समुद्र में जलचर जीयों को प्रलयकाल के समान प्रलय ( नष्ट ) करने की शक्ति रखनेवाली घड्यानल अनि पैदा हुई। उसीप्रकार एक दुष्टकुल दिति ( राक्षसी विशेष ) से उत्पन्न हुआ और जिस ( दुष्टकुल) से ऐसा तारकासुर उत्पन्न हुआ, जो कि समस्त लोक में ब्रह्मा का वरदान पाने से समीचीन धर्म में तत्पर रहनेवाले लोगों को धोखा देता था। इस समय अाप सरीखे महान राजाओं द्वारा कलिकाल का प्रभाव विशेष रूप से तुच्छ कर दिया गया है, जिसके फलस्वरूप सर्वोत्कृष्ट शक्तिशाली होने के कारण यह 'पामरोदार' नाम का मन्त्री अकेला ही पूर्योक्त अठारह प्रकार के दुष्टकुलों का भार और प्राचार ( दुष्ट वाय) धारण कर रहा है, इसलिए इसमें स्वप्नावस्था में भी फिर जामवस्था का तो कहना ही क्या है, साधुता (शिष्टपालनआदि परोपकारिता) की संभावना किसप्रकार की जासकती है ? अपि तु नहीं की जासकती। क्योंकि हे राजन् ! श्रापका मन्त्रीलोक दैत्यमय, अन्धकारमय, चौरमूर्ति व रातसमूर्ति होता हुआ भी जो दिन में धोखेवाजी करने में समर्थ होता है, यही आश्चर्य की बात है। अर्थात् उक्त प्रकार का कर रात्रि में ठगता है जब कि आपका मन्त्री दिन में ठगता है, यही आश्चर्यजनक है। ॥ १३ ॥ हे राजम् ! दूर से विशाल दृष्टि डालना, विशेष धेगपूर्ण प्रेम का अनुक्रम (परिपाटी), विशेष आदर करना और तत्पश्चात् समीप में आसन देना एवं मधुर वार्तालाप करने में विशेष आदर करना, इसप्रकार आपके 'खण्डपरशुरायुधं यस्य स तस्य । भगवतः शङ्करस्य खण्डपरशुरेवायुधरवेन प्रसिद्धो न तु मण्डपरश्वधरूपः कश्चनायुपषिशेषोऽतएव मु. प्रतिस्थपाठात् ('सण्डपरश्वधायुधस्य' ) धकारो निस्सारिता 'खण्डपरश्वायुषो रदः' इति क• प्रती टिप्पण्यपि प्रामाणिकी वरीवर्ति-सम्पादकः। * उक शुद्धपाठः क. प्रतितः संकलितः। मु. प्रती तु 'यसदाश्चर्य , + 'सरभस'क 'चारो के। खाडपरश्वायुधो का क.1 पाध्यतिरेक व उपमालंकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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