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________________ ३०० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पास्यादिश्य प्रकट रहसि व सर्वकषोचिसस्थितिपु । जारेविय मातृजाने मायादिषु पातकहितयम् ।।२१५॥ स्वपरमपि यरूपं बाहरी हितमस्य सुन्दराकारम् । स्वाकर्तध्यकपाद पटुस्तिदपि विशेयम् ।।२१६॥ अत एव देव, देवस्यैव पुरस्तात् पुरुहूतेनैवाथमुपश्लोशितः -- मानवति मानदलनो गुणवति गुणगोपनः स्त्रतः परत: । कुलशीजशौर्यशालिपु विशेषतो नृषु च कीनाशः ॥२१॥ चाटुपटुकामधेनुनीचरचरकल्पपादपः साक्षात् । अणहितचिन्तामणिरधमनिधिस्तव नृपामात्यः ॥२१८॥ शरीर-युक्त ( दुबला-पतला ) है तो उसका प्रत्यक्ष प्रतीत स्थूल ( मोटा-ताजा ) होना असंभव है। क्योंकि जिस प्रकार देवदत्त स्थूल ( मोटा-ताजा ) होता हुआ भी यदि दिन में भोजन नहीं करता तो उसे रात्रिभोजी समझ लेना चाहिए नसीप्रकार यदि 'पामरोदार' नाम का मन्त्री आपके कहे अनुसार व्रत-पालन से दीपाशरीर है तो यह मोटा-ताजा किंसप्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता ।।२१४|| हे राजन् ! जिसप्रकार माता के साथ व्यभिचार करनेवाले ( नीच) पुरुष डो पापों के भागी होते हैं। १. मातृ गमन और २. परस्त्री-सेवन । उसीप्रकार प्रत्यक्षातीत बात का अपलाप करके एकान्त में जनता के साथ यमराज का समान उचित ( कठोर ) वर्ताव करनेवाले मायाचारी पुरुष भी दो पापा के भागी होते हैं। १. हिमा-पातक ओर २. माया बार-पातक। भावार्थ-प्रकरण में उक्त गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन ! जिसप्रकार माता के साथ व्यभिचार करनेवाले नीच पुरुष उक्त दोनों पापों के भानो हाने हैं उसी प्रकार आपका वह 'पामरोदार' नाम का मन्त्री भी, जा कि प्रत्यक्षप्रतीत बान का अपलाप करके एकान्त में जनता के साथ यमराज के समान नृशंसना-पूर्ण ( कठोर ) वनांव करता हुआ दाखवाजी कर रहा है, दोनों पाप ( नृशंसता-हिसापातक और मायाचार पातक ) का भागी ६ ।। २१५ ।। ह य जन ! इस पामरादार नाम के मन्त्री का दूसरा भी अनेक प्रकार का लोकरञ्जक बाहरी व्यवहार (माया चार-युक्त वताव! ह, उसे भी विद्वानों को उसके दुराचारों को आच्छादन करने के लिए किवाड़-सहा समझना चाहिए ।। २१६ ।। इसलिए हे राजन् ! 'इन्द्र' नाम के महाकवि ने निश्चय से आपके समक्ष इस मन्त्री की निप्रकार श्लोकों द्वारा हँसी उड़ाते हुए प्रशंसा ( कटु आलोचना , की है हे राजन् ! यह श्राप का मन्त्री अभिमानियों का मानमर्दन करनेवाला, स्वयं व दूसरों के द्वारा गणवानों के गुण आच्छादत करनेवाला एवं कुलान, सदाचारी और शूरवीर पुरुषों में विशेष रूप से यमराज है। अथान्-वनक साथ यमराज के समान निर्दयतापूर्ण कठोर व्यवहार करता है || २१७ ।। है राजन : आपका यह मन्त्री निचय से प्रथया प्रत्यक्षरूप से मिध्यास्तुति करनेवालों के लिए कामधेनु है । अर्थान--कामधेनु के समान उनको चाही हुई वस्तु देनेवाला है और निकृष्ट आचारवालों के लिए कल्पवृक्ष है। अथा-कल्पवृक्ष के समान उनके मनोरथ पूर्ण करना है एवं निन्ध आचारयाले लोगों के लिए चिन्तामारण है। अथात्-चन्तामाण रत्न की तरह उन्हें चितवन की हुई वस्तु देता है तथा पापियों के लिए अक्षयनिधि है। अथोत्-उन्हं अक्षयानाध क समान प्रचुर धन देता है ॥ २१८ ॥ १. अनुमानालंकार। २, उपमालंकार । ३ रूपका कार । ४. रूपकालंकार । जलधार धामार्ग श्रीमत्सोमदेव रिका कल्पित नाम--सम्पादक ५. रूपकारंवार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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