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________________ २५३ तृतीय आश्वासः कठोरकमठपृष्ठाडीलस्पपुटपामितला, पटवारपर्याणगोणीगुमापिहितमेहना, पुराणतस्मन्दीरमेखलालकृसनितम्बनिवेशन;, धांसहंसरसितवाचालचरणचारचातुरीक्षोभितवीप्रोजनमानस्कारः, कासरेक्षणविषाणचाणविनिवेदित व निशायलिप्रचारः, किरातवेषस्य भगवतो विश्वमूर्तेरपरमेव मध्याकल्पं बिभ्राणः, पुनभाण्ट बन्दिवृन्दारकस्य कटकाधिपतेः, जामि गावलीपाठिनः सुभदसौहार्दस्य, दौहिनः श्रोत्रियकितवनानी नर्भसचिवस्म, समाश्रयस्थानमवक्रीणिलोकानाम, + अखिलपुनर्भूविवाहकृतकशिपुर्वतनसम्बन्धः, सकलगो मुलालिखिततूबरपुरमिसरिभीदायनिवन्धः, प्रचुरप्रतिकर्मविकृतमात्रैः पत्रिपुण्डाजिकैश्च परिबाज: 'पप खलु भगवान् संजातमहायोगिनीसंगतिरतीन्द्रियज्ञानोदतिः सिद्धः सामेधिकः संवननकर्मणा करिणा केसरिणमपि संगमति विघभेषन जननीमप्यास्मऽ धेरिणीं विदधाति जिसका हस्ततल कठोर कदए की पीठ के अप्नील ( कूपर-प्रान्तभाग) सरीखा ऊँचा-नीचा था। जिसने अपनी जननेन्द्रिय पुराने जीन की गोणी (चर्ममय आच्छादन ) की लँगोटी द्वारा आच्छादित की थी-ढक रक्खी थी। जिसने अपना कमरभाग मथानी की विशेषजीर्ण रस्सी की करधोनी से अलङ्कत किया था। जो परों में काँसे केनपर पहिने ए था. इसलिए उनके मधुर शब्दों से उसके दोनों पर विशेष शब्द कर रहे थे. उन शब्द करते हए पैरों के गमन की चतराईद्वाश जिसने रस्तार लोगों के चिस का विस्तार चलायमान किया था। जिसने भैस के सींग के शब्दों द्वारा रात्रि का बलिप्रचार ( पूजा प्रवृत्ति ) प्रकट किया था। जो (शङ्खनफ) भिल्ल ( भील ) वेपधारक भगवान् श्रीमहादेव का अनोखा व अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य) वेष धारण कर रहा था। जो स्तुतिपाठकों में प्रधान 'कटकाधिपति' नामवाले मानष का पुत्र था और 'सुभटसौहार्द' नामवाले चारणभाट का दामाद एवं 'श्रोत्रिय कितव' नामवाले नर्मसचिव ( भांड) का दोहिता ( नाती-लड़की का लड़का) था। जां प्रमचर्य से भ्रट हुए लोगों का विश्राम स्थान था। समस्त व्यभिचारिणी विधवा लिया के विवाह के अवसर पर जि 'पर जिसे भोजन वख एवं वेतन मिलने का संबंध किया गया था। जिसका समस्त गोकुलों ( ग्वालों के स्थानों) में शृङ्ग-रहित गाएँ व भैसों का दाय-संबंध ( दान-संबंध राज-पत्र में लिखा हुआ था। जिसके ज्ञान, मन्त्र व तन्त्र का प्रभाष ऐसे परिव्राजकों (शैवलिको सन्यासी-पेषधारकों) द्वारा निम्प्रकार जनाया जा रहा था, जिनके शरीर बहुतसी नेपध्य विधि ( भस्म-लेपन-श्रादि सजावट ) से विकृत होरहे थे जो ऐसे मनुष्यों के पुत्र थे, जो कि माया, योगशाला, ज्योतिष य वैद्यक-आदि लोकोपयोगी कलाओं के आधार से राजा ( यशोधर महाराज) के हित व अहित पुरुषों के जानने में चतुर थे एवं जो दएड व चर्मधारक थे। "हे लोगो ! निश्चय से यह 'शङ्खनक' नाम का योगीश्वर - ऋषियों में प्रधान ऋषि-है। जिसने महाविद्या देवताओं को प्रत्यक्ष जानना प्रत्यक्ष कर लिया है। जिसे इन्द्रिय रहित झान ( अजौकिक शान) की उत्पत्ति होचुकी है एवं जो सिद्ध है। अर्थात्-संसारी जीवों की अपेक्षा विलक्षण है-अलौकिक या जीवन्मुक्त है। इसके पचन अव्यभिचारी-यथार्थ वस्तु के निरूपण करनेवाले हैं। यह ऋषिराज निश्चय से वशीकरण विधि से सिंह का भी हाथी के साथ संगम कर देता है और वैरविरोध उत्पन्न करनेवाली औषधि के सामथ्र्य से माता को भी पुत्रों के साथ और विरोध उत्पन्न करनेवाली बना देता है। अयानन्सर मैंने (यशोधर महाराज ने ) उक्त गुप्तचर से हँसी-मजाक करते हुए पूँछा-अहो शानक ! तेरी यह उदरवृद्धि (पौष-बढ़ना ), जिसे मैंने पूर्व में देखी थी, इस समय किस कारण से नहीं होरही है ? 8 'विशावलिप्रपार' क०। A 'मामिमोगावलीपाठिन:' का 'अखिलपुनर्भूकृतकशिपुतनप्रवन्धः' क. * 'सत्रिपुत्रः कः । B'संहातमहायोगिनीसंबंधोऽतीन्द्रियशाननिधि क० ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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