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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये अम्पयावागर्थकमलुब्धानां दूतानां दुःप्रवृतिभिः । श्रीः स्वामिनः प्रवृद्धापि क्रियते संशयाश्रया॥ ११६॥
कदाचिस्कृत कार्धचन्द्रचुम्बितचन्द्र कापीतविम्बित मुण्डमण्डलः, तूलिनीकुसुमकुमलाकृतिजापरोस्कर्षितर्गकुण्डलः, कार्मगानेजदाजातिवरित कण्डिकायगुण्ठनाउरकण्ठनालः, निरवेलचौरीचत्रितविधिना प्रपदीनमासप्लम्बजालः, आलीफपस्थूलत्रापुषमागविनिर्मितारस्पादिसप्रकाण्डमण्डनः, परपर्यन्तप्रकोष्ठाप्रकल्पितगत्रलवलयावरूपउना, काकनन्तिका. फलमालापरचित बैकक्षकाक्षःस्थल, दोनों शत्रुओं को लड़ाकर बलिष्ठ के हाथ सन्धि और हीन के साथ युद्ध करना चाहिए तथा उक्त पञ्चाङ्ग मन्त्र व सैन्यशक्ति से होन शत्रु के समक्ष ऐसे उपाय का विधान कहना चाहिए, जिसमें दण्ड का प्राबर ! युद्ध करने की माषाहा' !! ११५ ।
अन्यथा याद राजदूत उक्तप्रकार से शत्रुभूत राजा के साथ उक्त-प्रकार साम-श्रादि नीति का वर्ताव न करे तो उससे विजिगापु राजा का परिणाम
जो राजदूत शत्रुभूत राजा के प्रांत कठोर वचनों का प्रयोग करते हैं और कठोर विषय का निरूपण करते हैं एवं लोभो इं। अर्थात्-शत्रुराजा से लाँच-घूस लेते हैं, उनके दुराचारों द्वारा राजा की बढ़ी हुई भी राज्यलक्ष्मी सन्देह को प्राप्त हुई की जाती है। अर्थान्-नष्ट की जाती है ॥ ११६ ।।
नारदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने ( यशोधर महाराज ने । वरिष्क नाम के गुप्तचरविभाग के अधिकारी स यह प्रवरा किया कि एसाशनक' नाम का गुप्तचर अपने देश व दूसरे देश के निवासी भेद-योग्य भद करने के अयोग्य मनुष्य-समह का वृत्तान्त ग्रहण करके आया है। तत्पश्चातमैंने उसे अपने समाप चलाकर उसके साथ निम्नप्रकार सा-मजाक की बात-चीत 'शनिक नाम का गुप्तचर? जिसका मस्तकप्रदेश कृत्रिम बधेचन्द्र से व्याप्त मार-पंखों के सशोभित होरहा था। जिसने कानों पर समरवृक्ष की कुसमकालयों-सरली आकासयाले लक्षामयी ( लाख के) कुण्डल धारण किये थे। जिसका कण्ठकन्दली ( कण्ठरूपी नाल-कमल का उण्डी ) एसी कएठी के चारों तरफ बंधी हुई हाने से काठन थी, जो कि वशीकरण व उनादन-श्रादि कार्यों में उपयोगी अनेक प्रकार की जटाओं ( मूली-जड़ों)स जड़ा ( बना हुइ था। जो एसा लम्बजाल (अँगरखा) धारण किये हुए था, जो कि पुराने कपड़ों की धजियों से बना हुआ, नाना रंगोवाला तथा गुल्फ ( घोटू) पर्यन्त लम्बा था। जो बदरी (वैर ) फलो सरीखे स्थूल त्रापुषजाव के माणयों से बने हुए अङ्गद ( भुजाओं के आभूषण ) धारण किये हुए था, इसलिये जिनकी कान्ति से जिसने प्रकोष्ठ (कोहनी से नीचे का स्थान ) और मणिबन्ध (कलाई-स्थान ) के आभरण उत्पन्न किये थे। जिसने हाथ की कलाई से लेकर कोहनी-पर्यन्त मणिबन्ध स्थानों पर भंसा के सींगों की पहुँचियों का अवरुण्डन ( आभूषण या शोभा ?) धारण किया था। जिसका वक्षःस्थल घोंघचियों की दो मालाओं से सुशोभित उत्तरीय वस्त्र से ज्याप्त था।
है 'मस्तरमण्डल: क. 1:! 'शू (श्रू)लिनीकुमुम' का । परन्तु मु. प्रती पाठः समीचीनः । ''आप्रपदीनप्रालम्बजाल:' का 'प्रकल्पितगवलयावरुण्डनः' क० । परन्तु मु. प्रतौ पाठः विशेषस्पष्ट राक्षश्च ।
A 1 'दैवशवक्षःस्थलः क. एवं वैऋक्षकवक्षःस्थल' ग.। A "तिर्यक् वक्षसि निक्षिप्तं चकशकमुदावत' इति टिप्पणी। परन्तु भर्यभेदो नास्ति-सम्पादक १. दीपालंकार । २. जाति-भलंकार ।