SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एतीय आवासः इति गुणविशिष्टमशेपमनीषिपुरुषपरिषदिष्टमखिलप्रयाणसामनीसुविधेयं हिरण्यगर्भनामधेय शास्त्रवाण्याभ्यासमिणिसामरगुरुपाय निसृष्टार्थ निजप्रहासिशयापहेलितपुलहपुलामपुलस्सिपालकाप्यकास्थायनमतिजातं वृतमाक्षपालिकेन तमेव लेखा मायामास । तथाहिगर्व घबर मुश्च मा घरत रे पञ्चालकाश्चापन केलि केरस संहर प्रविश र मदेश देशान्तरम् । मिथ्यचर्यबलावलेपरमसनश्यदिवेकात्मनामित्य वष्टिरिविचितं न सहते देवः स देवाश्मयः ॥ ११ ॥ शौण्डीर्यशालिनि जगस्नयाहरुधवणे देगेगमगरिमादि। तस्याहवेषु वयसा शिरसि प्रबन्धो यद्वाभमेषु परलोकधिया जटानाम् ॥ १६४ ।। दूसस्प पुन: स्वामिमैवमुक्तस्यापीदमनुष्ठानम्--- संकीर्तयेस्साम रिपो सदर्षे नयं सनीती बलिनि प्रभेदम् । मन्त्रेण तन्त्रेण च हीमवृत्तौ दण्वाश्रयोपायविधि विधिज्ञः ।। ११५ ॥ इसीप्रकार जो 'हिरण्यगर्भ नाम का राजदूत निम्नप्रकार के गुणों से अलङ्कत था। उदाहरणार्थजो समस्त विद्वज्जनों की सभा में प्रेमपात्र था। जो समस्त प्रस्थान करने योग्य वस्तुओं में अनुराग रखता था। जो शाख (नीतिशास्त्र) के अभ्यास से बृहस्पति को जीतनेवाला और शत-संचालन के अभ्यास द्वारा अर्जुन पर विजयश्री प्राप्त करनेवाला था। जो निसृष्टार्थ था। अर्थात्-जिसका सन्धि-विमहावि व्यापार मेरे (यशोधर महाराज) द्वारा प्रमाण माना जाता था एवं जिसने अपनी बुद्धि की विशेषता द्वारा पुलह ( राजनीति का विद्वान् षिविशेष), पुलोम, पुलस्ति, पालकाप्य और कात्यायन (पररुचि) इन (राजनीति के विद्वानों) का बुद्धि-समूह तिरस्कृत किया था। तत्पश्चात्-मैंने आक्षपटलिक (लेख. पाचक अधिकारी) से निम्नप्रकार राजनैतिक लेख विषय ( रहस्य) प्रस्तुत दूत के लिए नवण कराया प्रस्तुत लेख-रे बर्बर ! (रे सवालाख पर्वतों के स्वामी ! तुम मिथ्या अभिमान छोड़ो। हे पझाल देश में उत्पन्न हुए क्षत्रिय राजाओ! तुम लोग चपलता मत करो। हे करल ! (मलयाचल-निकटयतो देश के स्वामी ! ) तुम क्रीडा संकुचित करो। रे मद्रेश ! ( मद्रदेश के स्वामी ! ) तुम दूसरे देश में प्रविष्ट होजायो। क्योंकि वे जगत्प्रसिद्ध व भाग्यशाली (विशेष पुण्यवान्) यशोधर महाराज आप लोगों का, जिनका इयोपादेयज्ञान मिथ्या (निरर्थक ) ऐश्वर्य व सैन्य-गर्व ( मद) से वेगपूर्वक नष्ट हो चुका है, अनुचित व्यवहार सहन नहीं करते ॥ ११३ ॥ त्याग और पराक्रम को ख्याति से शोभायमान एवं तीन लोक में यश प्राप्त करनेवाले यशोधर महाराज के साथ जो राजा नम्रता का वर्ताव नहीं करता-उद्दण्डता करता है उसके मस्तक पर संपाम-भूमि में काक व गांध-वगैरह पक्षियों का प्रयन्ध ( मेलापक) होवे। अर्थात्--उसका मस्तक छिन्न भिन्न किया जायगा। अथवा प्रस्तुत महाराज से भयभीत हुआ वह शत्रुभूत उदएड राजा स्वर्गादि के सुख की क्षमना बुद्धि से प्रेरित हुआ गङ्गादि नदियों के तटपर्वो आश्रमों पर तपश्चर्या करता दुआ मस्तक पर जाएँ प्रबन्ध ( धारण) करे ॥ ११४॥ राजा द्वारा उक्त प्रकार समझाए हुए ( शत्रुभूत राजा के प्रति लेख लिखवाकर समझाए हुए) राजदूत का उक्त कथन के पश्चात् निनप्रकार कर्तव्य है। राजनीति-वेत्ता ( उपाय-चतुर) राजदूत को अभिमानी शत्रुभूत राजा के समक्ष उक्त पाँचप्रकार की सामनीति का निरूपण करना चाहिए और न्यायवान शत्रु के साथ न्याय का वर्ताव करने को कहना चाहिए तथा बलिष्ठ (प्रचुर सैन्य-शाली) शत्रुभूत राजा के साथ भेदनीति का प्रयोग करना चाहिए । अर्था १. समुञ्चगालंकार । २. दीपकालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy