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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
आचार विकृत-विकार-युक्त न हो) और १२. जो प्रिय हो। अर्थात्-जिसे देखकर नेत्र व मन में आल्हाद-उल्लास (श्रानन्द) उत्पन्न होवा हो।
भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार श्रीमत्सोमदेवसूरि ने निम्नप्रकार राजदूत का लक्षण, गुण व भेद निरूपण किये हैं। 'जो अधिकारी दूरदेशवर्ती सन्धि व विग्रह (युद्ध)-आदि राजकीय कार्यों की उसप्रकार सिद्धि व प्रदर्शन करता है जिसप्रकार मंत्री उक्त कार्यों की सिद्धि या प्रदर्शन करता है ॥१' राजपुत्र' विद्वान् के उद्धरण का भी यही आशय है ॥१॥ नीतिकारों ने राजदूत के गुण भी निम्न प्रकार उल्लेख किये है। १. स्वामीभक्क, २. द्यूतक्रीड़न व मद्यपानादि व्यसनों में अनासक्त, ३. चतुर, ४. पवित्र (निलोी ), विद्वान्, उदार, बुद्धिमान, सहिष्णु, शत्रु-रहस्यका ज्ञाता व कुलीन ये दूत के मुख्य गुण हैं। शुक्र विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो राजा चतुर, कुलीन, उवार एवं अन्य दूत के योग्य गुणों से अलंकृत दूत को भेजता है, उसका कार्य सिद्ध होता है ॥१॥ राजदूतों के भेद निर्देश करते हुए नीतिकार" लिखते हैं कि 'दूत तीन प्रकार के होते हैं। १. निसृष्टार्थ, २. परिमितार्थ व ३. शासनहर। १. निसृष्टार्थ-जिसके द्वारा निश्चित किये हुए सन्धि व विग्रह को उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह निसृष्टार्थ' हैं, जैसे पांडवों का श्री कृष्ण । अभिप्राय यह है कि श्री कृष्ण ने पाण्डषों की ओर से जाकर कौरवों के साथ युद्ध करना निश्चित किया था, उसे पाण्डवों को प्रमाण मानना पड़ा, अतः श्री कृष्ण पाण्डवों के 'निमुष्टार्थ दूत थे। इसीप्रकार राजा द्वारा भेजे हुए संदेश और शासन (लेख) को जैसे का तैसा शत्रु के पास कहने या देनेवाले को क्रमशः 'परिमितार्थ' व 'शासनहर' जानना चाहिए।
भृगु विद्वान् ने कहा है कि 'जिसका निश्चित वाक्य-सन्धि-विग्रहादि-अभिलषित न होनेपर भी राजा द्वारा उल्लन न किया जासके उसे नीतिज्ञों ने 'निसृष्टार्थ' कहा है ॥शा जो राजा द्वारा कहा हुआ संदेश -वाक्य-शत्रु के प्रति यथार्थ कहता है, उससे हीनाधिक नहीं कहता उसे "परिमितार्थ' जानना चाहिए ||२|| एवं जो राजा द्वारा लिखा हुआ लेख शत्रु को यथावत् प्रदान करता है, उसे नीतिज्ञों ने 'शासनहर' कहा है ॥३, प्रकरण में यशोधर महाराज ने 'राज-दूत की सहायता से ही सन्धि व विग्रह-आदि कार्य सम्पन्न होते हैं ऐसा निश्चय करके 'हिरण्यगर्भ' नामके दूत को बुलाया, जो कि निसृष्टार्थ था अर्थात्-जिसके द्वारा किये गए सन्धि व विग्रह-आदि उन्हें प्रमाण (मान्य) थे और जिसमें नीतिशास्त्रोक्त उक्त गुण वर्तमान थे ॥११॥
१. तया च सोमदेवमूरि:- अनासभेष्वषु दूतो मन्त्री ॥१॥ २. तथा च राजपुत्रः-देशान्तरस्थित कार्य दूतद्वारेण सिद्धयति । तस्मादतो यया मंत्री तत्कार्य हि प्रयापयेत् ॥१॥ ३. तथा च सोमदेवमूरिः-स्वामिमफिरव्यसनिता दाक्ष्यं शुचित्वममूर्खता प्रागल्भ्यं
प्रतिभानवत्वं क्षान्तिः परमर्मवैदित्वं जातिश्च प्रयमे दूसगुणाः ॥१॥ ४. तथा च शुकः--दक्ष जात्यं प्रगल्भं च, दूतं यः प्रेषयेम्नृपः । अन्यैश्च स्वगुणैर्युक्तं तस्य कूत्यं प्रसिस्थति ॥१॥ ५. तथा च सोमदेवसूरि:-स निषिधो निमुष्टार्थः परिमित्तार्थ शासनहरश्चेति ॥१॥
यत्कृतौ स्वामिनः सन्धिविग्रही प्रमाणं स निसृष्टार्थः यथा कृष्णः पाण्डवानाम् ॥२॥ ६. तथा च भृगुः—यवाक्यं नान्यथामावि प्रभोर्यशप्यनीप्सित्तम् । निसृष्टार्थः स विशेयो दूतो नीतिविवक्षणैः ॥१॥
यत्प्रोकं प्रभुणा वाक्यं तत् प्रमाणं वदेच्च यः । परिमितार्थ इति शेयो दूतो नान्यं अधीति यः ॥२॥ प्रभुणा लेखितं यच्च तत् परस्य निवेदयेत् । यः शासनहरः सोऽपि तो ज्ञेयो नयान्वितैः ।।
नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) दूतसमुहश पू. २२४-२२५ से संकलित--सम्पादक ५. समुच्चयालंकार।