SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये इत्यावेद्यमानज्ञानमन्प्रतन्त्रप्रभावः स्वपुरविषयनिवासिनः कृत्याकृत्यलोकस्य जनभुतिमादायागतः शङ्कनकनामा प्रणिधिरिति गूढपुरुषाधिष्ठायकारिष्टकादाकण्याहूय च तम् 'हंहो शङ्खनक, कुतो न खलु संप्रति सा तब तुन्वृद्धिः, इति तेन सय नालापमकरसम्। सोऽपि 'देव, कामिनीजनकटारिवासिदोविशदयविभिदिविभिः, विरहिणीहदयरिव सोरुमभिः काञ्चनच्छायापलाः सूपः, कान्ताननैखि (तत्प्राञ्जलिपेयपरिमलैः प्राज्पैराज्यः, स्त्रीकैतवैरिव जनितस्वान्तप्रीतिभिर्बहुरसवशैरषदशैः, लासिकाविलासैरिव मनोहरैः समानीतनेत्रनासारसनानन्दभावैः खाण्डवैः, प्रियसमाधरिव स्वादमानैरDविच्छिाखिने पक्वान्नैः, तरुणीपयोधरैरिव खुजाताभांगै; रसवधिधिमिई धिभिः, प्रणायिनीविलोकितरिय मधुरकान्तिमि; स्निग्धैर्दुग्य, अभिनवाङ्गनासंगमैरिबासीव स्वादुभिः शर्करासंपर्कसमासन्नै: परमान्नैः, E मेहनरसरहस्यैरिव साङ्गीणसंतापहारिमिर्वनसारपारदन्तुरैवरिपूरैः, आकण्ठमानयनमाशिखमाशिखा च प्रतिदिवसं १ दशद्वादशवारान्पसलसलानामेवंविधस्य च तत्पश्चात्-उक्त 'शङ्खनक' नाम के गुप्तचर ने मेरे साथ निम्नप्रकार वार्तालाप किया। अर्थासू-मेरे उक्त प्रश्न का निम्नप्रकार उत्तर दिया हे राजन् ! ऐसे आप सरीखों की ही, जो कि निम्नप्रकार भोज्य पदार्थों व जलपूरों से कण्ठ तक, नेत्रों तक, मस्तक तक और मस्तक के ऊपर वर्तमान जुल्फों तक दिन में दश-बारह वार भोजन करके सन्तुष्ट हैं व भोजन-भट्ट हैं और जिनके पास दुःख दूर करनेयाली प्रचुर सम्पत्ति वर्तमान है, तौद बढ़ती है। इसीप्रकार केवल आप सरीखों की ही नहीं, अपि तु ऐसे आलसी मनुष्य की, जो उक्तप्रकार का है। अर्थात्-जो दिन में १०-१२ बार निम्नप्रकार के भोज्य पदार्थों व जलपूरों के भक्षण-पान से सन्तुष्ट है व भोजन-भट्ट है एवं जिसका यथार्थदर्शन प्रचुर लक्ष्मी की शिखा (अप) के प्रकाश से मुसप्रकार नष्ट हो चुका है (जो लक्ष्मी के गर्व के कारण किसी की ओर प्रेमपूर्वक नहीं देखता ) जिसप्रकार रात्रि में दीपक को हस्तपर धारण करनेवाले पुरुष का यथोक्त दर्शन नष्ट होजाता है, तौद बढ़ती है परन्तु हम सरीखे भिक्षुकों का, जो कि आपके प्रसाद से अथवा श्रीमहादेव की कृपा से उपमान और उपमेय-रहित है। अर्थात्-जो विशेष दरिद्र हैं। अभिप्राय यह है कि हमारे समान कोई दरिद्र नहीं है, जिसकी उपमासदृशता-हमें दी जावे एवं हमारे समान उपमेय-उपमा देने योग्य हम ही है, यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला जठर ( उदर ) किसप्रकार वृद्धिंगत होसकता है ? अपि तु नहीं होसकता। तौंद बढ़ानेवाले भोज्य पदार्थ हे राजन् ! जिन्हें ऐसे चाँवल विशेष रूप से भोजन में प्राप्त होते है, जो उसप्रकार अतिदीर्घ ( लम्बे ) और विशद ( शुभ्र ) कान्तिशाली है जिसप्रकार नवीन युवतियों के कटाक्ष-दर्शन अतिदीर्घ और विशदकान्ति-शाली ( विशेष शुभ्र ) होते हैं। इसीप्रकार जिन्हें ऐसी दालें खाने को मिलती है, जो उसप्रकार सुवर्ण की कान्ति तिरस्कृत करती हुई उष्ण होती है जिसप्रकार विरहिणी स्त्री के हृदय सुवर्ण सदृश गौरवर्ण और उपरण होते हैं। इसीप्रकार जिन्हें ऐसे घृत विशेष रूपसे खाने को मिलते हैं, जिनकी सुगन्धि नासिकारूप अञ्जलियों द्वारा उसप्रकार श्रास्वादन करने योग्य है जिसप्रकार नियों के मुखों की सुगन्धि नासिकारूप अञ्जलियों द्वारा आस्वादन कीजाती है। इसीप्रकार जिन्हें ऐसे अवदंश ( मद्यपान की रुचि उत्पन्न करने के हेतु भुजे चने व धान्य के खीले ) खाने को मिलते हैं, जो कि उसप्रकार इमली-श्रादि C मासालिपेयपरिमलैः सा० ग । A 'मासिफाजालभिः' इति ख• प्रती टिप्पणी | D अविच्छिमस्वनेः' का। B मोहनरसरहस्यैरिध' क० ख. ग. ३० । 'मोहनरसहास्यैरिव' प० । A 'सरस' इति टिप्पणी । 'प्रतिदिवस दश द्वादश या धारान् पत्सलवत्सलाना' का।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy