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________________ सृतीय आश्वासः २५५ मित्राय गृहीतप्रदीपस्येवो स्कोटभी शिलाप्रकाशप्रशान्तयथार्थदर्शनस्य स्वभावादेव तुन्दपरिवस्य लोकस्य शोकापनुदसंपवणानामेवायं तुम्दोऽमन्दिमानमा स्कन्दति । अस्मां तु देवखादुपमानोपमेयार्थरहितानां कथं नामां पिचड स्कायताम्' इत्याछाप । पुनः सपरिहासमेन महमेवमवोचम् -- 'अयि हुकाधिपते, किमच कवचनापि हस्तमुखसंयोगोऽभूत् ।" ' समुदामेदिनी परिवृत, बाढम् ।' 'कथय कथय ।' 'देव, भूयताम् । त्रिपुरुषोदिजखित कमण्डलुकम्बुकलावत्कलनामावली प्रशस्ते, अस्ति खल्वस्यामेव पुरि प्रकृतिपुरुषस्य * स्वरवर्ते दिवाकीर्तेर्नता, स्वस्त्रीयो पलाइकस्य संवाहकस्य मैथुनिक: के खट्टे रसों से संस्कृत किये हुए और हृदयको आनन्दित करनेवाले हैं जिसप्रकार स्त्रियों की कपटपूर्ण चेष्टाएँ हृदय को उल्लासित आनन्दित करती हुई विशेष प्रेमरस से पूर्ण होती है। जो ऐसे खाएडवों ( मिष्टान्न व्यञ्जन — वरफी - आदि) से सन्तुष्ट हैं, जो उसप्रकार मनोहर ( हृदय को आनन्द उत्पन्न करनेवाले ) और नेत्र, धारण व जिल्हा इन्द्रिय को आनन्द उत्पन्न करनेवाले हैं जिसप्रकार नृत्यकारिणी की नेत्र- चेष्टाएँ मनोहर व नेत्रादि में उल्लास - आनंद -- उत्पन्न करती है। इसीप्रकार जो ऐसे पूर्ण पचनेवाले पकवानों द्वारा सन्तुष्ट हैं, जो उसप्रकार स्वादयोग्य ( रुचिकर ) हैं जिसप्रकार प्यारी श्री के प्रोष्ठ स्वादु और रुचि उत्पन्न करते हैं। जिन्हें ऐसे दही खाने मिलते हैं, जो उसप्रकार विस्तृत व कठिन ( जमे हुए ) हैं जिसप्रकार नवयुवतियों के कुच ( स्तन ) कलश विस्तृत व कठिन होते हैं। जिन्हें ऐसे दूध पीने मिलते हैं, जो उसप्रकार स्वादु व मधुर कान्तिशाली ( शुभ्र ) और सचिकण है जिसप्रकार स्नेह करनेवाली स्त्रियों के कटाक्ष निरीक्षण स्वादु व प्रिय होते हैं। जिन्हें ऐसी दूध की खीरें खाने को मिलती हैं, जिनके समीप शकर का मिश्रण है और जो उसप्रकार स्वादु व मिष्ट है जिसप्रकार नवीन विवाहित स्त्रियों के संयोग अत्यन्त स्वादु ष मिष्ट होते हैं एवं जिन्हें ऐसे जलप्रवाह पीने को मिलते हैं, जो कपूरपालिका ( समूह ) जैसे चमत्कार उत्पन्न करते हैं और जो उसप्रकार समस्त शरीर का सन्ताप दूर करते हैं जिसप्रकार सुरतरस ( मैथुनरस ) के गोप्यतत्व सर्वाङ्गीण सखाप दूर करते हैं।' अथानन्तर फिर भी मैंने इससे ( शङ्खनक नाम के गुप्तचर से ) हँसी मजाक पूर्वक निम्नप्रकार कहा ( पूँछा ) - हे मेढो के स्वामी ( भार बाइक ) ! क्या किसी स्थान पर आज तेरा हस्त-मुख- संयोग ( भोजन ) हुआ ? शङ्खनक ने उत्तर में कहा- हे समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के स्वामी ! विशेषरूप से हुआ । मैंने कहाकह-कह । उसने कहा- हे राजन! सुनिए, जिसकी नामावली - प्रशस्ति ( प्रसिद्धि ) ब्रह्मा द्वारा अपने मण्डलुरूपी फलक (पटिया ) पर और विष्णु द्वारा अपने पानजन्य नाम के शंख पर और मद्देश द्वारा अपने ललाट पर स्थित अर्धचरवरूपी फलक पर उकीरी गई है ऐसे हे राजन! इसी उज्जयिनी नगरी में ऐसा 'फिलिक' नाम का मनुष्य है, उसने मुझे कुछ अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य ) भोजन कराया है, जो शिल्पि ( बढ़ई) का कार्य करनेवाले 'ईश्वरवर्ति' नाम के नाई अथवा चाण्डाल का दोहता ( लड़की का लड़का) और 'बलाहक' नाम के अङ्गमर्दक का भानेज तथा 'सवरक' नामषाले शय्या पालक का शाला है। वह अपने यश की अपेक्षा आपसे ( यशोधर महाराज से ) तीन-चार अनुल ऊपर वर्तमान है। हे राजन् ! यह (किलिअक ) आप- सरीखा अग्रेसर (प्रधान) अवश्य है परन्तु कृपणों में अप्रेसर है। यह आप सरीखा प्रथम गणनीय अवश्य है, परन्तु किंपचों ( कृपणों) के मध्य प्रथम गणनीय है। यह उसप्रकार दृष्टान्त स्थान है जिसप्रकार आप हथन्त स्थान है परन्तु + 'गृहीतप्रदीपस्येनोत्कटत्रशिखा' ग० । * 'ईश्परमतें दिवाकीर्तिर्नशा' | १. ↑ 'उपमानोपमेयार्थिरहितानां ग प्रायेण उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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