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यशस्विकपम्पूरव्ये सवाकवास्तरकल्य, स्वकीथेन च परासा देवादपि विचातुरैरङ्गलैल्परिवर्तमानः, तथा हि-मिपचानाममेसरः, विधानो अपमगग्यः, कोकटानामुदाहरणभूमिः, कहाणां परिवर्णनीयः, शिस्त्रामणिोलुभानाम, भोजमावसानानन्सरमादेयनामा, संप्रति ज परमरमारमणीकामिनः स्वामिनः प्रसादभूमिः, दाक्षिणात्यदेशजन्मनो जापारिकनायकस्य विश्वावसो: प्रतिहरतः किलिमकनामधेयो देनेन कृतसंकेत इवापरामुखमक्षिकामुण्डमण्डलीप्रतिमतुरपरुषपाषाणाकी विषय विशी संजीर्णयावनालोदनादियारम्भम् , अतिपूतियुचितषिरसालसान्दोत्तरारम्भम् , उन्दुरमूत्रमित *थितावस्यतैलधारावपातप्रायम् ,
असमस्तसिदैरिकोपशनिकायम् , दरिद्रों का दृष्टान्त स्थान है। अर्थान-दरिद्रों की गणना में लोग इसका दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। यह आप जैसा मुख्यता से वर्णन करने योग्य अवश्य है परन्तु कृपणों ( लोभियों के मध्य वर्णनीय है। भावार्थ- जैसा कृपण के विषय में शास्त्रकारों १-२ ने कहा है।
हे राजन् ! जो लोभियों का शिखामणि ( शिरोरल) है। जिसका नाम भोजन करने के पश्चात् ही प्रहए किया जाता है। अर्थात्-जिसका नाम भोजन के पूर्व नहीं लिया जाता, क्योंकि कंजूस का नाम लेने से भोजन में अन्तराय ( विघ्न ) होता है। जो कि वर्तमान में साम्राज्यलक्ष्मी रूपी रमणी के इच्छुक आपकी कृपादृष्टि का पात्र है और जो कर्णाटक देशोत्पन्न व गुप्तचरों में प्रधान 'विश्वावस' का प्रतिहस्त ( दरू कलही) सरीखा है एवं जो मुझे भोजन कराते समय ऐसा मालूम पड़ता था- भानों-आपके द्वारा संकेत (शिक्षित) ही किया गया था। हे राजन ! यह भोजन कैसा था ? उसे श्रवण कीजिए
जिसमें शुरू में ही छह प्रकार की धान्यों का ऐसा मात परोसने का आरम्भ किया गया था, जो कि अनी कृष्ण मुखवाली मक्खियों के मुखमण्डल सरीखा ( काला ), धान्य-भूसे से व्याप्त होने के कारण कठोर, दाँत तोड़नेवाले कंकड़ों से निला हुआ, मलिन, सैकड़ों खण्डवाला एवं चिरकाल का पुराना था। जिसके (भात के) ऊपर अत्यन्त दुर्गन्धी व परसों की राँधी हुई पुरानी उदद की दालें विशेष मात्रा में उड़ली गई थीं। जिसमें प्रायः करके चूहे के मूत्र सरीखी ( बहुत थोड़ी) व दुर्गन्धी अलसी के तेल की धारा जरासी गिराई गई थी। जिस भोजन में कुछ पके हुए और प्रायः कडुए ककड़ी के खण्डों का व्यान-समूह वर्तमान था।
* धितातसतल' ख०। । 'अलसी' इति टिप्पणी 1 + 'असमस्तसिद्धपक्षस्कोपदेशनिकार्य कर। ६. तया चौक-उतानिवदमुष्टे: कोपनिषण्णस्य सहजभलिनस्य । कृपणस्य कृपाणरम च के बलमाकारतो भेदः ॥ १॥
अर्थात्-पण (लोभी) वर कृपाण (तलवार? इसमें केवल 'क्षा' की दीर्घमात्रा का ही भेद है। अर्यात-'कृपणः शम्द 'प' में हुन्छ 'भ' है और 'कृपाण' इ.ब्द के 'पा' में दाय 'आ' विद्यमान है बाकी सर्व धर्म समान है, क्योंकि कृपण अपने धन को मुष्टि में रखता है और सलवार में हाध की मुट्ठी पर धारण की जाती है। कृपण अपने कोष (खजाने ) में बैठा रहता और तलवार भी कोष म्यान ) में स्थापित की जाती है। कृपय मलिन रहता है और तलवार भी मलिन (कृष्ण) होती है, इसलिए, 'कृपण और 'कृपाण में केवल आकार का ही भेद है अन्य सर्व धर्म समान हैं। अर्थात्-जिसप्रकार तलवार धातक है उसी प्रकार लोभी का धन भी धार्मिक कायों में न लगने के कारण उसका घातक है, क्योंकि उससे उसे सुख नहीं मिन्दता और उन्हे टुाँत के दुःख प्राप्त होते है। २. तथा च वल्लभदेवः किं तया क्रियते लक्ष्या या वधूरिद केचला । या न वेश्येव सामान्या पथिकैरुपाज्यते ॥१॥
मर्थान-बालभदेव विद्वान ने भी कहा है कि 'उस लोभी को सम्पति से क्या लाभ है ! जिसे वह अपनी मी-सरीसा केवल स्वयं भोगता है तथा जिसकी सम्पत्ति वेश्या-सी सर्व साधारण पान्यों द्वारा नहीं भोगी जाती।