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तृतीय श्राश्यासः
२५७ अपरदालामूसलकालिप्रकारम् , परिस्वकारुकर्कशच्छेदसारम् , अवालमादरमूलकचक्रकोपक्रमम् , अभृष्टचिर्भटिकाभक्षणमामावक्रमोपनामम् , अपवाकोहिनदमन रिङ्गिणीकलाविरविरचनम् , अगस्तिथूतानातकरिबुमन्दकन्तुलसदनम् , नमन तरस याशिलान, जोर सानप हसवृहतीवाताम्सोभाजनकन्दसालनकापतारम्, एपबारपलामुमुशिकायम्बरम, उच्छुलोदेसिलसवल्लकराजकोकुन्दोड्डमरम्, अनपरामिकावर्जितावन्तिसोमावसानम्, + उमासलिलसमक्षारपानीयपानम् । स किमपि मामयभुजन्न चाशनाया उपशान्ति मनागप्यबापम् । केवलं तस्य पश्चितहष्टिपातया स्ववासिन्या परिविष्टो मूलाटीवरादोत्कटकालकालयविशिष्टः सर्वपात्रीणः श्यामाकमक प्राणवाणमका:दिति च क्षणमात्र बालापानन्दितचेतास्तमखण्डक्षीणे शरणे किमप्युदन्तमातमापप्रच्छे ।
सर्वचतोगतानान्द्रष्टुं येषां कुत्तमम् । ते भवन्तु परं पारैश्चक्षुष्मन्तः क्षितीश्वराः ॥११॥
जिसमें अर्धपक्व तूंमाफलों के प्रचुर खण्ड वर्तमान थे। जो अर्धपक्व कुम्हड़ा के कठोर खण्डों से मनोहर था। जिसमें वृहत् (महान ) बेलफलो, मूलियों और चक्रकों (खटाल पत्तों की शाक विशेषों ) का उपक्रम (जानकर किया हुआ प्रारम्भ ) था। जिसमें कुछ साक्षात् अग्नि में पके हुए चिर्भटिका-फलों ( किंधरिकाफल विशेषों) के भक्षण करने से अरुचिक्रम का उपक्रम-आरम्भ-नष्ट होगया था। जिसमें को कौआ-फलों व क्षुधा-नाशक भटकटैया फलों के विशेष वितरण की रचना की गई थी। लो अगस्तिवृक्ष, आम्रवृक्ष, आम्रातक ( कपिप्रिय वृक्ष ) व नीमवृक्ष इनके कन्दलों-खएडों का स्थान था। जिसमें ऐसी बाम्तखटक-पट्टी वस्तु-अधिक रूप से वर्तमान थी, जो कि बहुत दिनों की रक्खी हुई होने से पुरानी थी एवं मांगकर लाई गई थी। जिसमें विशेष पकी हुई मटकटैयाँ, रानकटहली के फल, शिवृक्ष व कन्द (उङ्गलिका) इनके सालनको समूहों का परिवेषण पाया जाता था। जिसमें एरण्डफाल प प्याज के भमभागों का प्राचुर्य था। जो स्थूलभूत ( मोटे) व हिलनेवाले वाँसों के समान कामी और कोकुन्दों ( अण्डरों) से उत्कट था। जिसमें अस्वीर में विशेष राई से मिश्रित कॉजी वर्तमान थी एवं जिसमें लपरणसमुद्र-सरीखा विशेष खारा जन-पान वर्तमान था।
हे राजन् ! 'उस किलिञ्जक' ने मुझे उक्त प्रकार का भोजन कराया परन्तु मेरी |ल की शान्ति जरा सी भी नहीं हुई। तत्पश्चात्-उसकी बी द्वारा उसकी नजर बचाकर दिये हुए, अच्छी तरह खाये हुए ऐसे बह शन्यों के भात ने, जिसमें दही से उत्पन्न हुआ, कामदेव के सदृश शुभ्र प सट्टा भट्टा वर्तमान था और जो समस्त कौल (जुलाहा) आदि के योग्य था, मेरी प्राण-रक्षा की। इस प्रकार मार्चपर्यन्त हँसी-मजाक के वधनों द्वारा हर्षित चित्त हुए मैंने ( यशोधर महाराज ने) उस 'शान' नाम के गुप्तचर से एकान्तगृह में कुछ भी विवक्षित वृत्तान्त पूछा।
जिन राजाओं को समस्त ( स्वदेश ष परदेशवासी) मानवों के हृदय में स्थित हुए कार्यों के देखने की उत्कट इच्छा है, वे ( राजालोग) निश्चय से गुप्तचररूपी नेत्रों से नेत्रशाली हो ॥११५||
• 'कन्दलोपरचनम्' का। + 'पासाम्लिताम्लखलकषिरसारं' क. 1 'वासार्पिताम्स' प०1 + 'उपनोवेल्लित' क० । +'समासलिलसमक्षार' ।
A B C . S 'मूलाटीवराटोत्कटकाइरलकालशेयविशिष्टः' घ• I A 'दूधिमूल' B 'आम्लाधिक 10 'सक' इति टिमपी । १जाति-मलद्वार।