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________________ पुचीय पावतः ४०१ पपोषयेषु मावति सरिस्पविन रसो बडप्रकृतिः । वसभिक स्मगुरपस्ता कथं सुशतिनो म मान्ति ४॥ सर हब विलीनीलिकामम्बरमाभावि सरुणशसिकिरणम् । मौरीविल एस्यते च किम् ॥४८९५ अभिनवयवाकुरा व कातामा कुस्तालेषु शशिकिरणाः । कपरपरागरायो भवन्ति व स्तमपटेषु विजुटान्तः १९॥ कदानि-शुष्कं कुतसैककित कणोवतसोल्पः कोर्म केलियासपिंगलिस गण्डमकीनन्दनः । सतपालवपराजैन शाश्नराम्लानमामूलस्तम्यास्त्वद्विरहेण सांप्रतमि भातर्दशा वनवे ॥४९१॥ कण्ठे मौक्तिकदामभिा प्रदलित दीनं करे फावर्षकोजी स्वधिस मृणालयलयः लिए फोले दसैः । अम्परिक कपयामि यत्परिजनैयाँसम्बनानो छटाः कान्वे स्वस्यैव सा प्रयते शोप सरोष्मणा ॥१९॥ ववागसास्याः मतदोरवस्था चिमण्यतामेकमिदं सु पच्मि । चासोमणा पापाप्रमाः प्राप्नोति नैवाथरपुम्वनानि ४१३॥ हे राजन् ! जिस चन्द्रोदय में जब नीरस (रसहीन अथवा खारा) और जहप्रकृति (जस्वभाववाला अथवा जल से भरा हुश्रा) समुद्र उद्दोलित (ज्वारभाटा-साहित-वृद्धिंगत) होजाता है तब उस अवसर पर पुण्यवान पुरुष, ओ कि सरस ( अनुराग-पूर्ण ) बुद्धिशाली और कामदेव से महान है, किसप्रकार उद्वेलित--- हर्षित नहीं होते ? अपितु अवश्य होते हैं. ॥४८॥ हे राजन् ! तरूण चन्द्र-किरणोंशला आकाश शैषातशून्य सरोषर-सरीला और विशा-समूह सधन लोधपुष्प-परागों से विशेष घूसरित हुआ जैसा (सम्पन) दृष्टिगोचर होरहा है cell हे राजन् ! चन्द्र-किरण कामिनी केशों पर विलुण्ठन ( लोट-पोट ) करती हुई नवीन यवासरों सरीखी दृष्टिगोचर होरही है और कामिनियों के स्तनतटों पर विलुण्ठन करवी हुई कपूर-धूकिसरीखी कान्तियुक्त होरही है. 188011 प्रसङ्गानुवाद-किसी अक्सर पर मैंने, जिसने विरहिणी सुन्दरियों को अवस्था-निरूपए करने में चतुर प अवसर-योग्य निम्नप्रकार सुभाषित श्लोक भाषण में प्रवीण पुरुषों द्वारा प्यारी सियों की अपराधविधि (दोपविधान) का संभालन (निश्चय) किया था, रतिविलास की अत्यन्त सत्कण्ठा से प्रान्त हुई मृगनयनी खियों के ऐसे कामज्वर की, जो कि लान-व्यापार से शून्य और औषधिरहित सुखास्तावमात्र की फया-युक्त था, ऐसे अनिर्वचनीय ( कहने के लिए मशक्य ) व्यापार द्वारा, जिसमें रोगीजन के मन द्वारा चिकिसा-सुख जान लिया गया था, वारम्बार चिकित्सा की। . विरहिणी खिों की अवस्था-निरूपक सुभाषित श्लोक-हे राजन् ! आपके विरह से उस कशोदरी प्रिया की इस समय यह प्रत्यक्ष प्रसोत होनेवाली दशा है उसके केशकलाप स्थित कुमा (कुछ खिले हुए पुष्प) मलिन होगये हैं। कर्णपुर ( कानों के आभूषण ) किये हुए कुमुद पुष अविकसित हुए है। हे राजन् ! क्रीड़ाकमल विक्षिप्त हुए हैं और उसकी गालस्थली पर लिम्पन किये हुए चन्दनरस प्रस्वेद-बिन्दुओं द्वारा प्रमालित किये गए हैं एवं उन-उन प्रसिद्ध पलयों से मनोहर शय्याएँ समूल शुल्क होगई है ॥४९१॥ हे राजन् ! उसके गले पर धारण बी हुई मोतियों की मालाएँ चूर्णित होगई है-टूट गई है। इस्त पर स्थित हुए नवीन अर म्लान होगप है। कुचकलशों की उष्णता से पचिनी-कन्दसमूहों का काढ़ा होगया है-अत्यधिक उध्य होगए हैं। गालों पर स्थित पन्न संतप्त होगप है और हे मित्र! आपको अधिक क्या कहूँ, जो चन्दनरस-धाराएँ उसके शरीर पर कुटुम्बीजनों द्वारा विक्षेपण की जाती है, वे उसकी शरीर-ऊष्मा से शीघ्र ही शुष्क होजाती है ॥ ४९२।। हे मित्र! आपके अपराध के कारण सुन्दर शरीर-शालिनी इस प्रिया की दुःखदशा क्या कही जावे ? 'सरमाः मुधियः पुस्वारता की नैव माद्यन्ति । १. श्लेष व भाशेपालंकार । २. उपमालंकार । ३. उपमालंकार । ४. समुरचयासकार । ५. समुच्चयालंकार । " ?
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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