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________________ ४०० यशस्ति चम्पूकाव्ये हस्तातरलर चिभिर्दुग्धमुग्धैः कटाक्षै हांसोलासश्रयिभिरधरैः कैरवाः । यस्य स्त्री स्तनभरैवन्दनस्यन्दसारयतः सान्द्रीभवति स विदुर्वस्तनोतु प्रियाणि ॥ ४८३ ॥ हरति स्मितं प्रियाणामपाकान्ति विलुम्पति नितान्तम् । अधिकरुचिः स्तनयुगले तथापि सद्रो मुरे जगतः ॥ १८४ ॥ वृद्धि विज्ञसमयः पुष्पकोदण्डपाणेः क्रीडानीडं रतिरसविधैः प्राणितं पञ्चमस्य । स्त्रीणां लीलावगमनिगमः कामिनां केलिहेतुः स्रोतः सूतिर्निजमणिमुत्र देव चन्द्रोदयोऽयम् ॥ ४८५ ॥ मेन्त्रैः फज्जलर्पामुलैः कुवलयैः कर्णावतंसोदयैः कस्तूरीतिलकैः कपोष्टफलकै लालकै भलिकैः । स्त्रीणां नीलमणि jiप्रकाशवश गैर्वक्षोजवस्त्र स्तमश्चन्द्रोद्योतभयेन विदुतमिदं चरणनखमयूखैरस्स्थामवस्थां हसितकिरणजालैः पलवलास रम्याम् । प्रसवसमय योग्यामङ्गनानामपारजनिकरत श्रीर्मीयते प्राप्तभूमिः ॥४८७॥ सावकाशीकृतम् ॥४८६ ॥ हे राजन! वह जगत्प्रसिद्ध ऐसा चन्द्र आप लोगों के प्रिय ( पुण्यकर्म या मनोरथ सिद्धियाँ ) विस्तृत जिसकी कान्ति निर्मल व अत्यन्त प्रकाशमान स्त्रियों के उज्वल हारों से, दूधसरीखे मनोहर ( उज्यः) कामिनी कटाक्षों से, हास्योत्पत्ति का आश्रय करनेवाले रमणी-ओष्टों से तथा श्वेतकमल-समूह से निर्मित हुए मणियों के [ उज्वल ] कर्णपूरों से एवं चन्दन-क्षरण से मनोहर युवतियों के स्तनतट सम्बन्धी अतिशयों से वृद्धिंगत होरही है' ||४८३|| हे राजन! यद्यपि चन्द्रयों के हास्य का विशेषरूप से अपहरण करता है ( उनके हास्य सा है) और केथवा कटाक्षों की शुभ्रकान्ति विशेषरूप से लुप्त करता है। अर्थात् — इसकी कान्ति कामिनी-कटाओं की कान्ति-सरीखी शुभ है एवं स्त्रियों के कुचों ( स्तनों ) के युगलों से भी अधिक कान्तिशाली है तथापि लोक को प्रमुदित करता है || ४८४ ॥ हे देव ! प्रत्यक्ष प्रतीत यह चन्द्रोदय समुद्र को वृद्धिंगत करनेवाला. कामदेव की विजयश्री का अवसर और रतिरस का निवास स्थान है । इसीप्रकार यह षड्ज. ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धक्त, और निषाद इन वीणा के सप्तस्वरों में से पम स्वर का प्राण ( जीवितप्राय ) होता हुआ स्त्रियों की विदग्ध चेष्टाओं ( शृङ्गारमय चेष्टाओं) के ज्ञान का शास्त्र है। अर्थात् – इसके होने पर ही स्त्रियों की विदग्ध चेष्टाओं का परिज्ञान होता है एवं यह कामी पुरुषों की कामकौड़ा में निमित्त होता हुआ चन्द्रकान्तमणिमयी पृथिवियों की प्रवाहोत्पत्ति है। अर्थात् - इसके उदय होने से चन्द्रकान्तमणि-भूमियों से जल-प्रवाह प्रवाहित होता है || ४८५ ॥ हे राजन! चन्द्रसंबंधी प्रकाश के भय से भागा हुआ यह अन्धकार अञ्जन-मलिन कामिनी-नेत्रों द्वारा, उनके कर्णपुरों ( कानों के आभूषणों) में उदय होनेवाले नीलकमलों द्वारा कस्तूरी की पत्त्ररचनायुक्त स्त्रियों के गालपट्रकों द्वारा, चञ्चल केशोंवाले स्त्रियों के ललाटपटकों द्वारा एवं नीलमणियों की कान्ति सरीखे श्याम कान्तिशाली कामिनियों के स्तनों द्वारा अवकाश दिया गया है ( शरणागत होने के कारण सुरक्षित किया गया है ) ||४८६ ।। हे राजन! इस चन्द्ररूपी वृक्ष की लक्ष्मी को, जिसने भूमि प्राप्त की है (क्योंकि विना भूमि के वृक्ष उत्पन्न नहीं होता). स्त्रियों की चरण-भय-किरणे अङ्कर संबंधी दशा में प्राप्त कर रही हैं और स्त्रियों की हास्य- किरण श्रेणी उसे पालोत्पत्ति से मनोहर अवस्था में लारही हैं एष कामिनियों के शुभ्र कटाक्ष उसे पुष्प- समयोचित अवस्था में प्राप्त कर रहे हैं ||४८७॥ ji' प्रकाशसुभगैः' क० । ३. समुच्चयालङ्कार । १. उपमालंकार । २. रूपकालंकार । ३. हेतु अलंकार । ४. रूपकालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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