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________________ तृतीय आश्वासः हत्याकर्णयति विनिवर्तिता पर संध्यावन्ने चन्द्रालोकन कुतूहलितलोचने मपि सति प्रविश्य कविकुरङ्गकण्ठीरवनामा सहाध्यायी पश्द्रोदयवर्णनानीमानि वृत्तान्यधि JEE सुतमभिधेयं हरेर्नबन्धु मित्रं पुष्पायुधस्य त्रिपुरविजयिनो मौलिभूवाविधानम् । वृत्तिवेतं सुराणां यदुकुलतिका वा स प्रीतिं वस्तनोतु द्विजराजनिपखिवन्द्रमाः सर्वकाम् ॥४८०॥ यतिवरे शेफालीनां प्रसूनचयच्छदिर्गगन सरसि छायां विहिताङ्कराहिमीलू | सुरपसिंहासाच्या प्रथमलमये चन्द्रोद्योततवास्तु मुवे सदा ॥ ४८१ ॥ को जलधर नीरनीरेजमेतन्मारः स्फारः प्रमदहृदयावरचा रामकोशः । सौधः सपदि विक्षिीरपूराभिषङ्गा यस्षोलासेस जयति जनानन्दनचन्द्र पृषः || ४८२ ॥ अपनी जैसी शक्ति कहै और सूर्य व चन्द्र आदि ग्रह देवता महों ( सूर्य आदि नवग्रहों ) के गुण निरूपण करें । [ उदाहरणार्थ - सूर्यग्रह का गुण प्रताप, चन्द्र का सौम्य, मङ्गलमह का गुण पृथिवी- लोभ, बुध का बुद्धिगुण, बृहस्पति का विद्वत्ता गुण, शुक्र का नांति गुण, शनि की शत्रु के ऊपर क्रूरदृष्टि, राहु का एकपादपीडन, केतु का शत्रु का उद्वासन ( घात ) 1] इसीप्रकार समुद्र पांच प्रकार के रत्नों का उपदेश करे * ॥। ४७९ ।। so 'santara' नामके मित्र द्वारा पढ़े हुए चन्द्रोदय वर्णन करनेवाले श्लोकों का निरूपण किया जाता है हे राजन! वह जगत्प्रसिद्ध ब्राह्मणों का और रात्रि का पति ऐसा चन्द्रमा सदैव आप लोगों का विस्तारित करे, जिसे विद्वान् लोग अत्रिऋषि ( हारीत-गुरु ) के नेत्र से उत्पन्न हुआ, क्षीरसागर का पुत्र, श्रीनारायण का नर्मबन्धु ( साला) व कामदेव का मित्र और श्रीमहादेव के मस्तक का आभरण करनेवाला व देवताओं की जीविका का खेत कहते हैं [ क्योंकि देवता लोग अमृत पीनेवाले होते हैं ] एवं जिसे यदुवंशी राजाओं के वंश का तिलक ( विशेषता उत्पन्न करनेवाला ) कहते हैं, [क्योंकि यादव शुधकुल में उत्पन्न हुए हैं और चन्द्र बुधकुल का पिता है ] । इसी प्रकार विद्वान लोग जिसे 'कुमुद बन्धु' कहते हैं, क्योंकि चन्द्र द्वारा कुमुद विकसित होते हैं ॥ ४८० || हे राजन! ऐसा चन्द्रोद्योत ( प्रकारा ) सदा के दर्ष निमित्त होवे, जो उत्पत्तिकाल में प्रदयाचल की शिखर पर स्थित हुआ निर्गुण्डियों के पुष्पसमूह सरीखा शोभायमान होरहा है और जो आकाशरूप तालाब में कमलिनी-कन्दाकुरों में शोभायमान होनेवाली कान्ति-सी कान्विधारक है एवं जिसकी आकृति इन्द्राणी महादेवी आदि की हास्योत्पत्ति-शोभा धारण करनेवाली है ।। ४८१ ।। हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध प्रत्यक्षप्रतीत व प्राणियों का प्रमुदित करनेवाला ऐसा चन्द्र जयशाली हो अथवा सर्वोत्कृष्टरूप से वर्तमान हो, जिसके उदित होने पर समुद्र ऊँचे सकलती हुई तरह से व्याप्त होता है, नीरनीरेअ (जल-स्थित कुमुद चन्द्रविकासी कमल) जड ( विकसित होनेवाला अथवा 'ढलयोरभेद:' इस नियम से ईषज्जलशाली ) होजाता है व कामदेव वृद्धिंगत या उद्दीपित होजाता है एवं [ चन्द्रिका पान करनेवाले ] चकोर पक्षी उल्लासित चित्त के कारण मनोहर वृत्तिवाले होजाते हैं तथा राजमहलों के उपरितन भाग शीघ्र ही दुग्ध-प्रवाद का संगम किये हुए जैसे होजाते हैं" ।। ४८२ ॥ +अयं शुद्धपाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितब्ब, सु० प्रती तु 'सुरपतिबधू हासोलासक्रिमं श्रयशकृतिः पाठः परस्वधानषचनानुपलम्भात् — सम्पादकः । नीलनीरेजनेत' ग० । १. समुच्चयालंकार । २. रूपक च दीपकालंकार । ३. उपमालङ्कार । ४. दीपकालङ्कार
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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