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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वाशेषनगकिरोमणिभुषां धानामभूतास्पदं तस्या एवं दिशो मलीमसरुचि प्रायं तमस्तायते । आपापड प्रथम सतः पुरनदीसंभदरेवानिर्भ पश्चादातसपुष्पकान्ति सदनु भीकण्ठकण्ठति ॥४॥ रविरहनि रजम्यामिन्दुरेष प्रतापी सदपि न तिमिराणां संततेर्मूलनाशः ।
अमियतगतिसमें वैरिवर्ग प्रयुक्त किमिव भवतु घुसस्तुमाधानोऽपि धाम ॥४६॥ इति चेतः सन्तिकारणान! चारगान बवमान्याकर्णयति, वारुणीमुखमण्डनरागाधिष्ठिते प्रतिष्ठिते चाइनि,
विहिरपिहरण लवणं कशानौ भोगणा राज्यविक मास्तम् । रास्तवावतरणामयणं च भक्तं प्रीणातु पुण्यजनमध्वनि बजम् ॥१७॥ नीराजनानविधी विधिवत्प्रयुगा दीपावली सामङ्गलहेतुभूता । नक्षत्रपक्तिरिय मेरुमहीधरस्य पर्यन्त वृत्तिरुदयाय तवेयमस्तु ॥४७८१ श्री: श्रेयांसि सरस्वती सुखकथा: स्वर्गीकसः स्वःश्रिय नागा नागवलं पड़ा +महगुणं रखानि रसाकराः । ये चान्येऽपि समस्तमालविधौ देगः सतां संमतास्ते सर्वेऽपि दिशन्तु भूप भवतः संध्यास्त्रवन्ध्याः कियाः ॥४९॥
प्रसङ्ग-हे मारिदत्त महाराज ! पुनः क्या होनेपर 'कविकुरङ्गकण्ठीरष' नाम के मित्र ने वक्त श्लोक पढ़े जब मैं हृदय को प्रमुदित करनेवाले चारणों के निम्नप्रकार गीत अश्य कर रहा था
जो पूर्वदिशा समस्त लोक-प्रकाशक श्रीसूर्य से उत्पन्न हुए प्रकाशों का स्थान थी, उसी तेजस्विनी दिशा में अब मलिनकान्ति सराखा ऐसा अन्धकार विस्तृत होरहा है, जो कि पूर्व में ईषत्पाण्डु ( धूसर-कुछ, उज्वल ) था। तत्पश्चात् जो गंगा के सिन्धु-संगम ( जहाँ एक नदी दूसरी से मिलती है) से उत्पन्न हुई कुछ मलिनता-सरीखा (कुछ नीलवर्ण-युक्त) था। उसके बाद जो अतसी (अलसी) पुष्प-सा नीलकान्दिवाला था और तत्पश्चात् जो श्रीमहादेव के कण्ठ-सरीखा विशेष श्याम था ॥४॥ हे राजन् ! यद्यपि दिन में यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला प्रतापी (भयजनक) सूर्य विद्यमान है और रात्रि में प्रतापी (कान्तिमान ) चन्द्र वर्तमान होता है तथापि अन्धकार-समूह का मूलोच्छेद नहीं होता, क्योंकि अनिश्चित प्रवृत्ति करनेवाले शत्रु-समूह द्वारा आरोपित किये हुए धाम (तेज या प्रभाव ) के सामने उन्मत तेजस्वी पुरुष का आरोपित किया हुआ तेज कैसा होता है ? अर्थात्-उसकी कोई गिनती नहीं है ।१७६।। सुभाषित-श्रवण-उन्नत, विस्तीर्ण अथवा मनोहर राज्यशाली हे राजन् ! शत्रुओं का दृष्टिदोष-नाशक यह लवण, जो कि आपकी आरती उतार कर अग्नि में क्षेपण किया गया है. तड़तड़ शन्द करे और हे राजम् ! आपके ऊपर उतारा हुआ यह भात-पिएख, जिसकी मार्ग में पूजा आरोपित की गई है, राक्षसों को सन्तुष्ट करे ॥४७॥ हे राजन् ! आरती उतारने की विधि में यह प्रत्यक्षीभूत दीपकश्रेणी, जो कि शास्त्रानुसार की हुई समस्त माल ( कल्याण ) उत्पन्न करने में कारण है, सुमेरु पर्वत के प्रान्तभाग पर स्थित हुई नक्षणभेणी-सरीखी आपके प्रान्तभाग पर स्थित हुई आपके राज्य की उन्नति-निमित्त होवे' ॥ ४७८॥ हे राजन् ! आपके वे सभी देवता, जो कि समस्त कल्याण-विधान में विद्वज्जनों द्वारा माने गए है और इनके सिवाय दूसरे देवता ( ऋषभदेव आदि तीर्थकर परमदेव ) भी समस्त सभ्याओं में सफल आचरणों का उपदेश करें। उदाहरणार्थ - श्री (लक्ष्मी) देवी कल्याणों का उपदेश करती हुई सरस्वती ( वाणी देवता) सुख-कथाएँ (धर्म, अर्थ व काम-पुरुषार्थों का कथन ) कहे। इसीप्रकार स्वर्गवासी देव स्वर्गश्री का उपदेश देते हुए नागदेवता (शेषनाग ) नागों (हाधियों) जैसी प्रथमा
*'प्रायस्तमस्तायते । ४'राग्यविकट' का। +'प्रहवलं' क० । १. उपमालंकार। 1. भाक्षेपालंकार । ३. समुच्चयालंकार । ४, अध्ययोपमालंकार ।