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यशस्तिलफ चम्पूकाव्ये
देशजमूलमति कुतम्यस्य स्वहस्वयं लीलोला सितलोचनं विचलितभूविभ्रमत्कुन्तल । साचिप्राचिमुखं स्तनोन्नविवशाव्यस्पलीमण्डलं किंचित्स्फारतम्यमजितं साकूतमेणीदृशः ॥४९४ ॥ यस्याः स्मरशन्नविधिः । बिम्बाधरे समपैतिसृणावना हस्ते शुरुति कृतं नलिनीवालम् ॥४९५ ॥ स्वप्रस्थितितरतेः पथिक प्रियायाः प्रखानमवदशो दशनच्छत् । आपाकपाण्डुरो सरसः कपोछः शुष्यस्सरः प्रविनिर्भ नयम ४४९६४ मीराम सितं नितान्यमुद्यानसारिणिसम* खुतिरश्रुपूरः । मानतितस्तनतटास्तव कान्त कोपात्कण्ठे च मास्तरूवाः सरवाः प्रियायाः ॥ ४९७॥
स्नातस्त्वद्दिपण संम्वरमशदस्याः सरःसंगमे पाथःक्वाथविधेर्यसमभूदेसार्यताम् ।
मुरण्डजैस्त्रिमिकुवैस्तीरे स्थितं दूरतः शीर्ण शैलिमञ्जरीभिरभितः श्रीणं क्षणाचाम्बुः ॥ ४९८ ॥ तत्र सुभग वियोगात्परैरप्यहोभिमनसिज शरदीर्घाः वासधाराः सदस्याः । स्मरविजयपताकास्पर्धिनी वक्त्रान्सिस्त नुरतनुधनुतनयं चातनोति ४४९९ ॥
तथापि मैं एक प्रत्यक्ष अद्वितीय दुःख कहता हूँ इसकी श्वास ऊष्मा के कारण अभुजलपूर बीच में ही शुक होजाने के कारण इसके प्रोष्ठ-चुम्बन प्राप्त नहीं कर पाता' || ४६३ ॥ हे मित्र ! आपकी सुगनयनी प्रिया का कोई ऐसा अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य ) व साभिप्राय ( मानसिक अभिप्राय सूचक ) स्वरूप है, जिसमें भुजा मूलभाग ( स्तन - युगल ) कम्पित हो रहा है और दोनों हस्त अङ्गुलि समूह द्वारा परस्पर-सन्धि ( मिलान) को प्राप्त हुए हैं। जिसमें शृङ्गारपूर्ण चेष्टा द्वारा दोनों नेत्र उल्लासित किये गए हैं और केश विचलित ( सिर के सामने आए हुए पश्चात् पीछे किये गए ) होते हुए दोनों भ्रुकुटियों पर नानाप्रकार से संचरणशील हुए वर्तमान है। जिसमें मुख तिरछा गमनशील होरहा है एवं स्तनों की ऊँचाई वश उदर-रेखा-श्रेणी विघट रही है। जिसमें नितम्ब विस्तृत होरहे हैं एवं शारीरिक अवयव संकुचित होरहे
* ।। ४९४ ।। हे राजन् ! आपके दूरवर्ती होने पर कामज्वर के अतिशय-यश आपकी प्रिया को कोई वस्तु नहीं रुचती । उदाहरणार्थ- सखियों द्वारा उसके बिम्बफल सरीखे पोंठों पर स्थापित किया हुआ कमल डेंटल दूर होजाता है, क्योंकि उसे वह फेंक देती है और इस्त पर धारण किया हुआ कमलिनी- पलष उसकी ऊष्मा व शुष्क होजाता है ।। ४६५ ।। हे पथिक! आपके प्रवास से नष्ट रुचिवाली आपकी प्रिया काष्ठ शुष्क प्रवाल-सदृश व गालस्थली पके हुए पत्र - सरीखी ( शुल्क ) एवं दोनों नेत्र शुष्क सरोवर- सरीखे [ कान्तिहीन ] होगए हैं ।। ४६६ ।। हे राजन् ! आपकी प्रिया का श्वास मोष्मऋतु संबन्धी ग्रीष्मस्थल ( मरुस्थल ) की वायु सरीखा उष्ण हो गया है। हे रूप में कामदेव ! आपको प्रिया का अत्यन्त अभुपूर उद्यान सोचनेवाली कृत्रिम नदी के प्रवाह- सरीखा होगया है । हे कान्त ! आपकी प्रिया के कोप-वश वायु- अंश कण्ठ में शब्दजनक छ स्वन- प्रवेश कम्पित करनेवाले हुए हैं ||४६७।। हे मित्र ! आपकी प्रिया में इतना सन्ताप- अतिशय है जिसके फलस्वरूप जब इसने स्नान हेतु तालाव में दुबकी लगाई तब जल का विशेष पाकविधान होने से जो आश्चर्यजनक घटना हुई, उसे भ्रषण कीजिए-पक्षी बारम्बार उड़ गए। मछलीसमूह दूर किनारे पर स्थित होगया । शैवाल-मअरियाँ चारों ओर से शतस्वण्ड ( सैकड़ों टुकड़ोंवाली ) होगई और कमल क्षणभर में म्लान होगए |१४६८|| हे प्रियदर्शन! आपके विरह से आपकी प्रिया की
*अयं पाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितथ, मु० प्रतौ तु 'श्रुति' पाठः परस्य पाठेऽतिर्न घटते — सम्पादकः १. हेतु-अलंकार । २. समुचयालंकार । ३. समुच्चयालङ्कार । ४. उपभा, दीपक व समुच्च बालङ्कार । ५. उपभाव समुच्चयालंकार : ६. अतिशय व समुच्चयालंकार ।