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________________ सूत्रीय आश्वासः नाभीय समावि वापसमागमेऽस्याः पायो वलित्रयमिदं पदम्तरालम् । भारिपथुमरेण मुहुर्मुहुः स्यादुत्तारहारतरख स्सनमण्ड च ॥१०॥ धम्यस्त्वं नयनाम्बुर विरहव्याजाहिर्यन्मुहुः प्रादुर्भूय विलासिनीषु लमसे संभोगकेलिमम् । नेत्रे कवलितः कपोलकरलो. चित्रा सगगोडभरे शोले सनमायसिनसिप विश्व नाभिं वजन् ।।५०१५ नीलोत्पलं निएतदम्पुलवाम्बुनि मीहार सरलयुति चन्द्रविम्बम् । विम्मीफलं व सुदृसास्तव विप्रियेग विद्राणविद्रुमलप्तानवपलवामम् ॥१०॥ क्वेद कार्य क्स च मनसिजः स्फारवाणप्रहार क्वार्य तापः क्व च निरवधिर्वाष्पपूरप्रचारः । स्वैषा मूछा क्स च कुलपटपेलणघासकल्पः क्यासौ लम्बा क्व च मगहशनिमेष प्रजपः ।।५०३॥ सम्पार्थनतस्त्वयि + स्मृतिनिशापाया मुग्धया इसप्रक्षुषि यादकः कृतमिदं विम्याधरे कामम् । कण्ठे कामिगुणोपितः परिहिसो हारो नितम्बस्थले केयूर धरणे धृते विरसित हस्ते च विझीरकम् ॥५०४॥ स्वास-संततियाँ पाँच अथवा छह दिनों में ही काम-बाण-सरीखी विस्तृत होगई और उसकी मुख-कान्ति उक्त विनों में ही कामदेव की विजयपताका से स्पर्धा करनेवाली (उसके समान शुभ्र) होगई एवं प्रस्तुत दिनों में ही आपकी प्रिया का शरीर कामदेव की धनुष-टोरी सरीखी कशता यिस्तारित कर रहा है ||४६६॥हे सुभग! आपकी प्रिया का नाभिरूपी ताजाव अश्रुजल-समागम होने पर भैयररूप कम्पनातिशय से स्खलित होरहा है-चाँध तोड़ रहा है और उदररेखारूपी तीनों नदियों अश्रुजल के परिणामस्वरूप बहुलता से मध्यभाग तोड़नेपाली होरही हैं एवं आपकी प्रिया का स्तनमण्डल विशेष उज्वल मोतियों की मालाओं से वारम्वार चश्चल होरहा है" ।।५००11 हे नयनाम्बुपूर ! (हे प्रिया के नेत्रों के अश्रुजलप्रवाह !) तुम्ही धन्य (पुण्यवाम्) हो। क्योंकि प्रिया के हृदयमध्य स्थित हुए नाभि ( मध्यप्रदेश) प्राप्त किये हुए तुम विरह-मिष ( बहाने ) से बारम्बार बाहिर निकलकर सियों में संभोग ( सुरत) कीड़ा-कम प्राप्त कर रहे हो। अब उक्त संभोग क्रीड़ा का क्रम प्रकट करते हैसुम ( अनुपूर) नेत्रजल के बहाने से दोनों नेत्रों में कमलित (श्यामवर्णशाली) हुए हो, गालस्थल-पट्टक पर चित्र हुए हो और ओष्ठों पर स्थित हुए रागवाम् हुग हो एवं कुचकलशों पर प्राप्त हुए प्रालिजन करनेवाले होगये हो तथा त्रियलियों ( उदर-रेखाओं । पर प्राप्त हुए आलिङ्गन किये गर हुए हो ॥५०१।। राजन् ! आपके विरह-दुःख से आपकी प्रिया के दोनों नेत्ररूपी नीलकमल गिरते हुए जलबिन्दुओंवाले मेघ की शोभा. धारक हुए हैं तथा मुखचन्द्र, जिसकी वल्युति ( अवयव-कान्ति ) हिम से धूसर । आपके विरह से उज्वल) है, ऐसा होगया है। हे सुभग ! आपकी प्रिया का बिम्बफल-सरीखा ओष्ठ ऐसा होगया है, जिसकी कान्ति मलिन विद्रुम- मूंगों) लता के नवीन पल्लयों सरीखी है ॥५०२॥ हे राजन् ! कहाँ तो श्रापकी मृगनयनी प्रिया की शरीर-कशता और कहाँ उसके ऊपर किया गया कामदेव के प्रचुरसर बाणों का निष्ठुर प्रहार । कहाँ यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला आपकी प्रिया का ताप और कहाँ मर्यादा उसानकारक ( दोनों नेत्रतट भरनेवाला) भवप्रवाहरूप प्रतीकार। कहाँ तो यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली मूछा (नष्ट-चेतनता) और कहाँ वह कुचपट ( स्तन-वा--काँचली) कम्पित करनेवाला वासविधान और कहाँ तो यह प्रत्यक्ष प्रवीत होनेवाली आपकी प्रिया की लज्जा और कहाँ यह प्रजल्प (वेलजापूर्वक किया हुश्रा प्रलपन) यह सब आश्चर्यजनक है" ॥५०॥ हे राजन् ! आपकी स्मृतिरूपी रात्रि का प्रवेश होजाने के कारण उस मुग्धा (यथावत्स्वरूप कृतसंगमतिमलिभिः । थारगुरतु ? नाभि नजर' क । स्मृतिषशाषेशात्तया' च । १. समुच्चय र उपमालंकार । २. रूपक ष समुन्चनाकार । ३. रूपक व समुच्चयालंकार । ४. कवलोपमारूपस्य कवलालंकारः। ५. विषमोपमालकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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