SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये रम्मास्तम्भौ खरभुवो प्रोलसमाधमूल कन्दवाई किसयमदः प्रिस्फुटकुमाधि । मीला चानुदलघयोदशिते देह एष प्रायस्वापस्तदपि च सखे कोऽन्यपूर्वस्तरूण्याः ॥१०॥ निवाः सपनीष न दृष्टिमार्गमामाति तस्याः क्षणाक्षणेऽपि । सखीचने चोपनतेऽप्युपान्ते शून्यस्थिताया इव प्रेरितानि ॥५०६॥ कामस्यैतस्परमिह रहो यन्मनःप्राविकल्यं तस्मादेष चलति नितरामङ्गमाधुर्यहेतः । कामं कान्वास्तनु रसिकाः प्रीतये कस्य न स्युस्सत्रास्त्रादः क हव हि सखे पा म पक्या मृणास्यः ॥१०॥ बायोइतिः प्रविरला नयनान्तरले नासान्सरे च मसः स्तिमितप्रचाराः। तपा प्रशाम्यति सुधाचमनाविधाओं का तागमे चिरहिणीपु : मृगीक्षणास ॥५०॥ न जाननेपाली कोमलाङ्गी) ने बन्धुओं की प्रार्थना से पैरों में लगाने योग्य लाक्षारस नेत्रों में लगा लिया और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर कजल ( नेत्राअन ) बिम्बफल सरीखे श्रोठों पर लगा लिया एवं करधोनीगुण कण्ठ पर स्थापित कर लिया तथा हार नितम्यस्थल पर धारण कर लिया। इसीप्रकार उसने केयर चरणों में धारण कर लिया तथा नूपुर पैर की जगह हाथ में पहन लिया ।। ५०४ ।। हे मित्र! सम्पापनाशक निम्नप्रकार शीतल तल विद्यमान रहने पर भी आपकी तरुणी प्रिया में कोई अनिर्वचनीय ( कहने के लिए अशक्य ) व अपूर्व सन्ताप बहुलता से वर्तमान है। सदाहरणार्थ-सन्तापध्वंसक तत्वों की दृष्टान्तमालाकेलों के स्तम्भ-सरीखे दोनों ऊर अथवा यो कहिए कि अरुरूप केलास्तम्भ, जो कि नाभिरूप कुए के चट पर उत्पन्न हुए हैं, विद्यमान है तथापि आपकी प्रिया का ताप नष्ट नहीं हुआ। इसीप्रकार कन्वयुगल सरीखा स्तनयुगल अथवा रूपकालैकार के दृष्टिकोण से यह कहिये कि स्तनयुगलरूपी कन्दयुगल, जो कि त्रिवली ( तीन रेखाएँ) रूपी नाल-मूल (कमल-डंठल ) से सुशोभित हुआ वर्तमान है, तथापि आपकी प्रियतमा का ताप नहीं गया। इसीप्रकार यह चरणपल्लव, जिसमें हास्यरूप पुष्प कलियों की शोभा विकसित होरही है, विद्यमान है, तथापि ताप प्रलीन नहीं हुआ एवं दोनों नेत्ररूपी नीलकमल, जिनके ऊपर महान केश-समूह रूप पत्र-समूह स्थापित किया गया है, वर्तमान हैं तथापि आपकी प्रिया का ताप दूर नहीं हुआ। हे राजन् ! विशेषता यह है कि उक्त सभी सन्तापनाशक तत्त्व आपकी तरुणी प्रिया के शरीर में सुशोभित हुए पाए जाते हैं, तथापि उसका ताप नहीं गया ॥ ५०५॥ हे राजन् ! उस आपकी प्रिया को रात्रि के अवसर में भी [विन के अवसर की दो बात ही छोड़िए ] निद्रा सपत्नी सरीखी दृष्टिगोचर नहीं होती एवं सखीजनों के समीप में आने पर भी उसकी चेष्टाएँ ( कर्तव्य ) पिशाचों द्वारा गृहीत हुई सरीखी होती है । ५०६ ॥ हे मित्र ! इस संसार में 'चित्त से चाही हुई वस्तु से प्रतिकूलता ( विपरीतता ) उपस्थित करना' यह निश्चय से कामदेव का गोप्यतत्व है। मनचाही वस्तु की प्रतिकूलता के कारण शरीर की सुकुमारता का कारण यह कामदेव विशेषरूप से उद्दीपित होता है। तत्पश्चात ( काम-ज्वलन के अनन्तर)त्रियाँ विशेष रसिक (अनुरक्त) होती हैं, वे रसिक खियाँ किस पुरुष को उल्लासित नहीं करती ? अपितु सभी को उल्लासित करती है। हे मित्र! उन रसिक सियों में कैसा आस्वाद है? इसका स्पष्ट उत्सर ग्रहो है कि जो रसिक रमणियों पकी हुई दाँखों सरीखी नहीं है ॥५०७ ।। हे मित्र! विरहिणी स्त्रियों के लिए जब पति-संयोग होता है तब उनमें क्या क्या लक्षण होते हैं? उनके नेत्रों के मध्य अश्रुजलोत्पत्ति अल्प होती 'प्रस्फुरत' का। 'चायदतनुदलोदयिते' क० । * 'मृगेक्षणासु' क । १. समुच्चयालझार । २. उपमा, रूपक व समुच्चयालद्वार। ३. उपमालंकार । ४. हेतूपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy