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सुतीय भावास:
प्रमप्रदानसलिलं नवनामधाराः श्वासः समागमनसंलयमाप्रताः। मौनं पुनर्भवति केलिकृतो सच्चाटु काम्ले नते कलहितास विलासिनीपु ॥६०९॥ नेनान्तर्गतबाष्पबिन्दु विशश्वासानिलान्दोलित मन्दस्पन्दरयच्छदं प्रविलम्मानमहम्यि च । वयनारदर्श स्वदोषविगमालप: पीव मानरमायाङ्गिला निमाविधिक कामागमाछोपितम् ॥११॥ सरस्माकमास मेनयोजिमश्रीरघरदलमराग पत्रशून्यः कपोलः । अवसि च न वसंसः कामिनीना रतान्ते तदपि यदनदेशे शान्सिरम्यद काचित् ॥११॥ अफवलयबासनाकुलं मालमेतरसनसनकान्तिनांडिसालक्तकेन ।
मसि न कुषमया मालाच कण्ठे प्रणपकुपित्तकारतासंगमे कामुकानाम् ॥११॥ है, नासिका को मध्य वायु अल्पसंधार करनेवाली होती हैं। अर्थात्-उनके नासिका-छिद्रों से वायु धीरे धीरे आती है एवं उनका शरीर-सम्ताप उसप्रकार शान्त होजाता है जिसप्रकार अमृतपान से ताप शान्त होजाता है। ॥५२८ ।। हे राजन् ! जब अपित की हुई स्त्रियों के प्रति पति नम्रीभूव होजाना है तब उसका क्या परिणाम होता है ? तब निम्नप्रकार उल्लास अनक घटनाएँ होती हैं तब उनके नेत्रों से प्रकट हुए श्रानन्द-अश्रुओं की प्रेमधाराएँ स्नेहार्पण-जल में परिणत होजावी हैं। अर्थात्-रसिक व अनुकूल स्त्री कहती है कि हे पतिदेव ! मैं आपको प्रेम दूंगी' ऐसी प्रतिज्ञा करके हस्त पर जलपान होता है जिसप्रकार ब्राह्मणों के लिए जलधारापूर्वक कुछ दिया जाता है। इसीप्रकार श्वासवायु. 'हे स्वामिन् ! फ्धारिये' इस समागम-वयन के पूर्वदूत होती है एवं संभोग-क्रीमा के अवसर पर चाटुकारिता ( मिथ्यास्तुति) सहित मौन होता है। अर्थाम्-वे पुनः पति का अनायर नहीं करती || ५० ।। हे मित्र! आलिशानपूर्वक ऐसा मिया का मुख बारम्बार चुम्बन कीजिए, जिसमें नेत्रों के मध्य आनन्दाश्रु की जलबिन्दुएँ वर्तमान हैं। जो विवश ( परवश या स्वषश ) श्वास-बायु द्वारा कम्पित व कुछ फड़कते हुए प्रोष्ठों से व्याप्त है। जिसमें अभिमानरूप पिशाच की ग्रन्धि (गाँठ-अन्धनविशेष ) के शतखण्ड ( सैकड़ों टुकड़े) होरहे हैं। अभिमानरूप दोष के नष्ट होजाने से जिसमें सन्ताप-अवस्था नष्ट होरही है। जिसमें पुनः चित्त उल्लासित होरहा है। जो निषेध-वचन की प्रेरणा करनेवाला है एवं जो अल्प कोप-सहित है। ॥ ३१॥ हे राजन् ! कामिनियों के साथ की हुई संभोगक्रीम के अन्त में यद्यपि उनका केश-समूह सरल होता है ( वाकता छोड़ देता है), नेत्रों में अमन-श्री (शोभा) नहीं होती, उनका ओष्टपल्लव पान किया जाने के फलस्वरूप राग( लालिमा ) हीन होता है, उनके गालों की पत्ररचना ( कस्सूरी-श्रादि सुगन्धि द्रव्य से की गई चित्ररचना) नष्ट होजाती है और उनके कानों में कर्णपूर नहीं होते तथापि उनके मुखमण्डल में कोई अपूर्व व अनिर्वचनीय कान्ति होती है ।। ५११॥
हे राजन् ! प्रणय( प्रेम ) कुपित श्री के साथ संभोग करने में कामी पुरुषों का लखटपट्ट स्त्री के फेश-समूह को सुगन्धि या निवास से व्याप्त नहीं होता और उनकी श्रोष्ठ कान्ति लाक्षारस-व्याप्त नहीं होती [क्योंकि उन्हें प्रणय-कुपित प्रिया के लाक्षारस-रञ्जित ओष्ट-चुम्बन का अवसर ही प्राप्त नहीं हो पावा] एवं उनके सृदय पर प्रिया की स्तन-मुद्रा (कुच चिड) नहीं होती तथा उनके गले पर अगद- खी-भुजा. आभूषण ) चिह्न मी नहीं होता ॥५१२ ।।
१. उपमा व समुच्चयालंकार। २. रूपकालंकार । १. रूपकालंकार। . समुरचयालंकार । ५. दीपचालझार।