________________
2.
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
सुभट इव विशस्त्र: स्वामिहोनेव सेना जनपद इव दुर्गेः क्षीणरक्षाविधानः । पतीनां धारयैनं शमवशमवश्यं वैरिवः क्रियेत ॥ १७५॥ भयेषु दुर्गाणि जलेषु सेतो गृहाणि मार्गेषु रणेषु राक्षसाः । मनःप्रसादेषु विनोद देवो गजा इवान्यस्किमिहारिन चाहन ४१०६ ॥ परिनगरकपाटस्फोटने बचदण्डादवनिपाताः शत्रुसैन्याधमदें ।
गुरुभरविनियोगे स्वामिनः कामितार्था: प्रसिकरिभयकाले सिन्दुराः सेतुबन्धाः ॥ १७७॥ परं प्रधानस्तुरगो रथो नरः काचिदेकं प्रहरेन वा युधि । स्वरभराकरी तु हन्यादखिलं रिपोर्बटम् ॥ १७८ ॥
पदार्थ आपके लिए रुचिकर है, उसके लिए आप आशा दीजिए हम सब ( हाथी, घोड़े, पृथिवी व धनादि Test) देने तैयार है ॥१७४॥ जय राजाओं की सेना क्षेत्र हाथियों से रहित होती है तब वह पराधीन शेती हुई शत्रु वर्गों द्वारा उसीभाँति निस्सन्देह जीत ली जाती है जिसभाँति शस्त्र- हीन योद्धा जीत लिया जाता है अथवा जिसप्रकार नायक-हीन सेना जीत लीजाती है एवं जिसप्रकार रक्षा के उपायरूप दुर्गं (किला) से शून्य हुआ रक्षा के अयोग्य देश जीत लिया जाता है || १७५|| इस संसार में हाथी सरीखा क्या दूसरा युद्धोयोगी वाहन (सवारी ) है ? अपि तु नहीं है। क्योंकि जो (हाथी) शत्रु-कृत आतकों (भय) के उपस्थित होने पर किले हैं। अर्थात् जो किले- सरीखे विजिगीषु राजा की रक्षा करते हैं। जो नदी व तालाव आदि जलराशि के उपस्थित होने पर पुल हैं। अर्थात् - हाथीरूपी पुलों द्वारा विशाल जलराशि सुगमता पूर्वक पार की जासकती है। जो मार्गों पर प्रस्थान करने के अवसरों पर गृह हैं। अर्थात् हाथीरूपी विश्राम गृहों के कारण मार्ग तय करने में कष्ट नहीं होता । जो युद्धों के अवसर पर राक्षस हैं । अर्थात् जिसप्रकार राक्षस शत्रुओं को नष्ट भ्रष्ट कर डालते हैं उसीप्रकार विजिगीषु राजा के हाथीरूपी राक्षस भी शत्रुओं को नष्ट
कर डालते हैं और चित्त को प्रसन्न करने के अवसर पर जो कौतुक (विनोद) करने में निपुण हैं । अर्थात् - जिसप्रकार कौतुक करने में चतुर पुरुष चित्त प्रसन्न करता है उसीप्रकार हाथी रूपी कौतुकनिपुण वाइन भी चित्त प्रसन्न करते हैं || १७६ || जो हाथी, शत्रु-नगरों के किवाड़ विदीर्ण करने के लिए
दण्ड है। अर्थात्-जिसप्रकार वञ्चदण्ड ( शख विशेष) के प्रहार द्वारा किवाड़ तोड़ दिए जाते हैं। उसीप्रकार इस्विरूप वजदण्डों द्वारा भी शत्रु नगरों के किवाड़ तोड़ दिये जाते हैं। जो शत्रु सेना को चूर-चूर करके लिए गमन-शील पर्वतों के पतन ( गिरना ) सरीखे हैं । अर्थात् जिसप्रकार पर्वतों के गिरने से सेना चूर चूर होजाती है उसीप्रकार हाथी रूपी पर्वतों के पतन से शत्रु सेना भी चूर-चूर होजाती है और जो महान भार वहन कार्य में स्वामी के लिए अभिलषित वस्तु देनेवाले हैं। अर्थात् जिसप्रकार अभिलषित भार उठानेवाले यन्त्र आदि द्वारा महान भार उठाया जासकता है उसी प्रकार हाथीरूपी अभिलषित वस्तु देनेवाले यन्त्रों द्वारा भी महान भार उठाया जासकता है। इसीप्रकार जो, शत्रुचों के हाथियों द्वारा उपस्थित किये गए भय के अवसर पर पुलबन्ध ( तरणोपाय ) सरीखे भय दूर करते ४ ||१७|| जब कि प्रधान घोड़ा, रथ व पैदल सेना का सैनिक वीर पुरुष, युद्धभूमि पर कभी एक शत्रु का घात कर सकता है अथवा नहीं भी कर सकता परन्तु हाथी में महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह अपने शरीर से उत्पन्न हुए आठों शखों ( १ सूँड, २ दाँत ( खीसें), ४ पैर और १ पूँछ इन भाठ हथियारों ) द्वारा शत्रुओं का समस्त सैन्य नष्ट कर देता है* ॥१७८॥
*विनोदपण्डिता छ ।
१. रूपकालंकार | १. प्राचुर्योपमालंकार । ३. रूपकालंकार | ४. रूपकालंकार । ५. अतिशयालंकार ।