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________________ द्वितीय आधासः १६९ स्वेरिकास्मातुपसि प्रबुवाष्टात्मसम्मेन्द्रियहरयमूर्तेः । दुःस्वप्रदुष्टप्रदुष्टचेष्टाः प्रयान्ति मार्फ सहसा नृपस्थ ॥१०॥ ये पूजयन्ति करिणं तयशदीझ मन्त्राक्षरैपितकर्णयुगं मोन्त्राः । तेषां शुभानि म हितकान्तिचेष्टाछायादिभिः स फययेदहितक्षयं ॥१॥ वृत्तानुपर्षपृथुकोमलदीर्घहस्तः पनाभपुष्करमुखः करूविकनेत्रः। पष्टीरदो बहादुन्दुभिधोकाश्चन्द्रार्धविशसिनखः करटी जयाय ॥१२॥ वीरः प्रधारनिरितस्ततः पुरः करेगुभिर्मासैनिकायबन्धनैः । आवोधी कविगो पलागी पनाम इमिनाम : १३ इत्य सिन्धुरधिमामि वस्तः शुस्वा रिपूर्णा गण: त्रासादस्तसमस्तविग्रहमर स्थाभृत्य इस्यापरन् । एते हस्तिन एम बाजिनियहः झोणीयमेते वयं देव ब्रूहि यत्र भाप्ति मयतः सर्वत्र सम्मा परम् ॥१७॥ जिसप्रकार प्रात:काल में उवित हुए और प्रसन्न चक्षुरादि इन्द्रियों से दर्शनीय मूर्तिवाले सूर्य के दर्शन से दुष्टस्वप्न, दुष्टपह और पापचेष्टाओं के फल ( दुःख ) शीघ्र नष्ट होजाते हैं उसीप्रकार प्रातःकाल में जागे हुए और प्रसन्न चक्षुरादि इन्द्रियों से दर्शन करने योग्य शरीरवाले हाथी के वर्शन से भी राजा के दुष्टस्वप्न, दुष्टप्रद और पापचेष्टाओं के फल (दुःख) शीघ्र (तल्काल) नष्ट होजाते हैं। ॥ १७ ॥ जो राजा लोग ऐसे हाथी की पूजा करते है, जिसकी यम-वीक्षा कीगई है। अर्थात् राज्यपट्ट-बन्ध-मादि के अवसरों पर राजा द्वारा जिसकी यशदीक्षा (पूजा) कीगई है और जिसके दोनों कानों में मन्त्राक्षर जपे गये हैं ( स्थापित-उचारण-किए गए है), वइ हाथी, मद (गण्डस्थलआदि स्थानों से बहनेवाला दानजल ), गर्जना (चिंघारना), कान्ति ( प्रभा ) और चेष्टा ( कर्ण और सूंडआदि अङ्गोपाङ्गों का संचालन आदि व्यापार ) एवं छाया ( तेजस्विता ) इत्यादि गुणों द्वारा उन राजाओं के कल्याण सूचित करता हुआ शत्रु-विनाश को भी मूधित करता है ।। १७१ ॥ ऐसा हाथी शत्रुओं के ध्वंस हेतु है, जिसकी सूंड, बर्तलाकार (गोल श्राकारवाली ), अनुक्रम से स्थूल ( मोटी), कोमल ( मृदु) और लम्बी होती है। जिसकी सूंह का अप्रभाग रक्तकमल-सरीखा अरुण (लाल) है। जिसके दोनों नेत्र चटक पक्षी-सरीखे और दन्त ( खीसे ) यष्टी( फल-भार से मुकी हुई उन्नत वृक्ष-शाखा ) जैसे एवं दोनों कर्ण विस्तृत और दुन्दुभि (भेरी) की ध्वनि सरीखे शब्द करनेवाले हैं एवं जिसके पैरों के वीसों नख अर्द्धचन्द्र-सदृश है। ।। १७२ ।। राजा को उस यागइस्ती (राज्यपट्ट-वध की शोभा वृद्धिंगत करनेवाला सर्व श्रेष्ठ हाथी) की निम्नप्रफार उपायों द्वारा प्रसिद्धि करानी चाहिए। उदाहरणार्थ-प्रस्तुत हाथी के सामने व यहाँ यहाँ दौड़ते हुए सुभट (धीर) योद्धाओं द्वारा, उसे दूसरे हाथियों से लड़ाकर, मार्ग पर अर्गलाओं (वेदानों ) के बन्धनों द्वारा, षजवाए हुए बाजों की ध्वनियों से नथा दूसरे हाथियों के भागने द्वारा ॥१७३।। हे राजन् ! जब शत्रु-समूह, इसप्रकार आपकी इस्ती-चेष्टाएँ ( व्यापार ) गुप्तचर द्वारा श्रषण कर लेता है तब यह भयषश समस्त युद्ध के अतिशय छोड़कर निसप्रकार आचरण ( कहना ) करता हुआ शरण में आकर सेवक होजाता है। हे राजन् ! ये हाथी और घोड़ों का समूह आपकी भैंट-हेतु वर्तमान है एवं यह पृथिवी पापकी सेवा में मौजूद है और ये सभी हम लोग सेधक हुए आपके समक्ष उपस्थित है। अतः इनमें से जो १. पालद्वार। २. अतिशयालाहार । 'वचिद् इस्वस्य दीर्यता' इति टिप्पणीकारः प० । ३. तथा चोक्तम्--फलभारमता शाखा यष्टिरियुध्यते पुरैः। ४. उपमालबार । ५. दीपकालाहार । सं०टी०पू० ३.१ से साइलित-सम्पादक २२
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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