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________________ १६८ यशस्तितकचम्पूकाव्ये योयमिव कामवन्तम्, अवन्तिमिवासंतापम्, भापोधनासरमिव मनस्थितम्, मानमिव पुभगम्, भास्थान मिवान्वेशमपि गुमरवानाम् । मनावसरे परिकलामाभिधानो बारजीवनोऽबमीट गानासाहत्तानीमानि--- स्मानाबरमूच्चोशासकलावस्ते तादात्मभू___ELEनि सारसीयासी । मनाक्षीसिविलक्षमवलांस्ते इस्तिमस्ते नप प्रायः प्रीतिकृतो भवतु विवपश्रीकेलिकोसिप्रदाः ॥१६॥ प्रतः अभाते परमेशिनन्दनान्समय पत्यकारिणो नरेश्वरः । न केवलं तस्य रणेषु शीतयः स सार्वभौमत्व भवस्यसंशयम् ॥१६॥ सामोशवाय शुभलक्षणसहिताय विमात्मने सकलदेवनिकेतनाय । बस्याणमङ्गलमहोत्सवकारणाय तुभ्यं नमः करिवराय वराय नित्यम् ॥१६९॥ यो ससप्रकार कामयान' (समस्त प्राणियों का पातक ) है जिसप्रकार श्रीनारायण कामवान् (प्रयुन नाम के पुत्र से अतात ) होते हैं। जो उसप्रकार असंताप' ( शमादि को सहन करनेवाला) है जिलाधार चन्द्रमा पसंताप (शिशिर) होता है। जो उसप्रकार मनस्वी ( समस्त कर्म-भारा पहन-मादि सहन करनेवाला ) है जिसप्रकार युद्ध में अप्रेसर रहनेवाला पीर पुरुष मनस्वी (स्वाभिमानी) होता है। जो उसप्रकार सुभष" (अल्पाहारी) है जिसप्रकार अनायून -विजिगीषु ( विजयलक्ष्मी का इच्छुक राजा या अल्पाहारी) सुभग ( भाग्यशाली) होता है। इसीप्रकार जो दूसरे गुणरूपी रामों की पसावर सानि ( उत्पत्ति स्थान) है जिसप्रकार खानि, माणिक्यादि रनों की उत्पत्ति के लिए सामि। (समर्व) होती है। इसी अवसर पर 'करिकलाम' ( हाथियों की कला-शाली ) नाम के स्तुति पाठक ने हाथियों की प्रशंसा-सूचक निमप्रकार शोक पढ़े हे राजन् ! ब्रह्मा ने सामवेद-पदों का गान करते हुए, ऐसे जिन हाथियों को, जो कि गणेश जी के मुख-जैसी श्राकृतिशाली और पृथिवी-मंडल की रक्षा करने में समर्थ शक्तिवाले है, इस्त पर धारण किए गए उस प्रताप-शील पिण्ड-खण्ड से बनाया, जिससे सूर्य उत्पन हुधा है। वे आपके हाथी, जो कि विजयलक्ष्मी की कीदा से उत्पन्न होनेवाली कीर्ति को देनेवाले हैं, आपको विशेष हर्ष-जनक होवें ॥ १६॥ इसलिए जो राजा प्रातःकाल के अवसर पर ब्रह्मा के पुत्र झाथियों की पूजा करके दर्शन करता है, वह केवल युद्धों में ही विजयश्री प्राप्त करके कीनिभाजन नहीं होता किन्तु साथ में निस्सन्देह चक्रवर्ती भी होजाता है। ॥ १६ ॥ तुझ ऐसे श्रेष्ठ हाथी के लिए वरदान के निमित्त सर्वदा नमस्कार हो, जो कि सामवेद से उत्पन्न हुआ, कल्याणकारक चिन्हों से विभूपित, अत्यन्त मनोह, समस्त इन्द्रादिक देवों का निवास स्थान एवं शुभ, माल (सुख देना और पापध्वंस करना) महाम् मानन्द की उत्पत्ति का कारण है ॥ १६६॥ १. विर्घा सर्वसत्वाना कामवन्तं प्रचक्षते । २, तथा चोकर-'अमादीनां च सहनादसंतापं विदुर्घ पाः । ३. 'सर्वधर्मसहत्वाच्च विद्यावायं मनस्विनम्'। ४. तदुकम्'अल्याहारेण यस्तृप्तः सुभगः स गजोत्तमः'। ५. पायनः स्यादोदारको विजगीषाविवर्जिते'। सं. टी. पृ. १९८-२९९ से संकलित-सम्पादक ६. उपमालंकार। ५. समुच्चयालंकार । ८. अतिशयालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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