________________
द्वितीय आवासः
१६
सरसरभिः स्वरस्वतीहासा पद्दासिभिर्देवप्रभा पटलै स्वकीयशरीरश्रिवाया बीरभियः पर्यन्तेषु सितसर सिरुहोमहारमिथ सेपाक्ष्यन्यम्, अस्तरान्तराध्वजशङ्खचक्रस्वस्तिकनभयादर्धविन्यासाभिः प्रदक्षिणावर्त वृत्तिभिः सूक्ष्ममुख स्निग्धाङ्गनराजिभिरणुअविन्दुमालाभित्र मिचिसोचितप्रतीक, आपादितोत्सवसपर्यमिव विजयलक्ष्मी निवासम् एवमन्यैरपि द्दछविपुलय्यकनिवेश मनोहारिभिर्मानोन्मान प्रमाणसमन्वितैश्चतुविधैरपि प्रदेशैरनूनामतिरिक्तम्, आचक्षाणमिव ससघास्थिवस्वेन स्वामिनः समुद्रमुद्रासनं महामहीशमहामात्राणाम्, द्वादशस्वपि क्षेत्रेषु शुमसमुदायप्रत्यङ्गकम्, विध्यन्नयोगिनमिव क्षान्तं रूपादिषु विषयेषु दिवि सर्वशम्, असिसर्तिभित्र तेजस्विनम्, अभिजातमिवोदय प्रत्ययैर्विशुद्धन
जो सर्वत्र व्याप्त होनेवाले और सरस्वती का हास्य तिरस्कृत करनेवाले ( विशेष उज्वल ) शारीरिक कान्ति-समूहों से ऐसा प्रतीत होरहा है-मानों— अपने शरीर पर स्थित हुई वीरलक्ष्मी के समीप श्वेतकमलों की पूजा उत्पन्न कर रहा है । जिसके शारीरिक अवयव ( अङ्गोपाङ्ग ) हाथियों की ऐसी रोम-राजियों और अत्यन्त सूक्ष्म बिन्दुओं से पूर्ण व्याप्त और योग्य हैं, जो किं सूक्ष्म अप्रभागवाली, स्निग्ध ( सचिकण ) तथा जिनके मध्य-मध्य में ध्वजा, शङ्ख, चक्र, स्वस्तिक, और नन्या की रचना पाई जाती है और जिनकी प्रवृत्ति प्रदक्षिणारूप आवर्ती ( जल में पढ़ने वाले भ्रम) सरीखी है। जो महोत्सव पूजन किये जानेवाले सरांखा मनोश प्रतीत होता हुआ विजयलक्ष्मी का निवास स्थान है। इसीप्रकार जो दूसरे ऐसे चार प्रकार के शारीरिक अवयवों ( देशसद्भावी, मानिक, उपधानिक व लाक्षणिक रूप were ) से, न तो न्यून ( कम ) है और न अधिक है, जिनकी रचना विशेष धनी, महान और प्रकट होने के कारण अतिशय मनोश है और जो मान ( ऊंचाई का परिमाण ), उन्मान ( तिरछाई ) और विशालता से युक्त है। जो सात प्रकार के गु" ( भोज, तेज, नल, शौर्य, सत्व, संहनन और जय ) से विभूषित होने के फलस्वरूप ऐसा जान पड़ता है मानों - महान राजाओं और महान हाथियों के स्वामियों के लिए आपके सात समुद्र पर्यन्त होनेवाले शासन ( राजकीय आशा ) को ही सूचित कर रहा है। जिसके बारह प्रकार के शारीरिक अपाङ्ग (लँड, दाँत, (खींसें ), मुख, मस्तक, नेत्र, क, गर्दन, शरीर, हृदय, जङ्गा व जननेन्द्रिय-आदि) पर शुभसमूह-सूचक शारीरिक फल ( चिन्ह ) पाये जाते हैं ।
जिसप्रकार वीतराग मुनि चक्षुरादि इन्द्रियों के विषयों-रूपादि - से चलायमान नहीं होता प्रकार ओ चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयों से चलायमान नहीं है । जिसप्रकार दिव्य ऋषि ( फेवलज्ञानी महात्मा मुनि ) सर्वज्ञ ( समस्त पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञाता ) होता है उसीप्रकार जो ( सर्व वस्तुओं का ज्ञाता ) है । जो उसप्रकार तेजस्त्री" ( प्रतापी - भारवहन समर्थ ) है जिसप्रकार अनि तेजस्वी होती है। जो उदयों ( शत्रु के सामने हमला करने प्रस्थान करना व पक्षान्तर में जन्म) और प्रत्यय ( समोप में गमन करना व दूसरे पक्ष में विश्वास ) से उसप्रकार विशुद्ध ( पवित्र या व्याप्त ) है जिसप्रकार कुलीन पुरुष उदय (जन्म) और धर्मनिष्ठा ( संस्कार- आदि) तथा प्रत्यय ( विश्वास - पात्रता ) से विशुद्ध होता है ।
१. उग्व– देशसद्भाविनं केचित् मानिका थोपधानिकाः । केचिलाक्षणिकारचेति प्रदेशाव चतुर्विधाः ॥१॥ २. ३. तथा चोक्तम्—'कमानं तु विज्ञेयमुन्मानं तिर्यगाश्रयम् । प्रमाणं परिणाहेन त्रिष्वयं लक्षणक्रमः ॥१॥ ४. तथाहि--' ओजस्तेजो यलं शौर्य सत्यसंहननं जयः । प्रशस्तैः सप्तभिश्चैतेः स गजः सप्तवा स्थितः ॥१॥ ५. तथा चोकमू--'भारस्यातीय वनं विद्यात्तेजस्विनं गजम्'