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________________ १६६ यशस्वित्तकचम्पूकाव्ये माला पसारतकोमलाभोगेन भविष्कहनेकजन्यजयादेशरेखाभिरिव कसिभिश्विदलिमिरवक्तेन मुनोतसा सूदुरीविस्तालिना करेग मुहम दुरितस्ततो विनिकीमथुपायशीकरैदिक्पालपुरपुरन्त्रीणां पट्टबन्धावसस्मिन् मुक्ताफलोपापनानीव दिराम्तम्, अनवरतमुना मरूपवागुरुसरोजकेतकोस्पलकुमुवामोसनादिना मदवदनसौरभेग भवदैरवर्षदर्शनाशपाती नामम्बत्वरकुमारकामाममियोस्क्षिपन्तम् , अम्भौधरगम्भीरमधुरध्वनिना हितेन सकल्यागनागसाधनाविपरमिवात्मनि विनिवेदयन्सम, अरालपक्ष्मणः स्थिरप्रसन्नायतपतरताकृष्णदृष्टिभागस्य मणिरुको लोचनपुगकस्वातविन्दपरागपि स्वैरपाङ्गपातः अबङ्गलासु पिष्टातकचूमिव सिम्सम्, भमाग्दक्षिणोतेन ताम्राहलोपशोभिना समाजातमधुसंनियमद्विसन विधानमिव नारुलोकावलोकनकुसूहसिम्पारस्थल्कीः सोपानमार्ग, मसिरान्तसम्म मारोह्येन वर्णवालहयेनोद्याददुन्दुमीनां नादमिव पुनरुकयन्तम्, उदासया ५ मर्वयम्तमिव परविमशिखराणि जो ऐसे शुण्डा-चण्ड ( स ) द्वारा, बार-बार यहाँ वहाँ फैंके हुए उदार-संबंधी शुभ जल-कषों से ऐसा प्रतीत होरहा है, मानों-इस प्रत्यक्ष दिवाई देनेवाले राज्यपट्ट-बन्ध के अवसर पर इन्द्र-आदि दिक्पाल-नगरों की कमनीय कामिनियों के लिए मोसियों की भेंटें अर्पण कर रहा है। जिसकी (शुण्डदण्ड की) पूर्णता या विस्तार अनुक्रम से स्थूल (मोटा), गोलाकार, दीर्ष और सकमार है और जो कुछ संख्यावाली ऐसी वलियों (भूड़ पर वर्तमान सिकुड़ी हुई रेखाओं) से, जो ऐसी मालूम पड़ती थीं मानो-भविष्य में होनेवाले अनेक युद्धों में प्राप्त कीजानेवाली विजयलक्ष्मी के कयन की रेखाएँ ही हूँ-मण्डित है। एवं जिसका मद-प्रवाह शोभा जनक है वया जो, कोमल, लम्बी और विस्तृत अङ्गलियों से अलङ्कत है । जो (प्रस्तुत-उदय गिरि नामक झी ), मद-व्याप्त अपने मुख की ऐसी सुगन्धि से, जो निरन्तर आकाश में उड़ रही है और चन्दन, धूप, कमल, केतकी-पुष्प, उत्पल और कुमुदों-श्वेत चन्द्रविकासी कमलों-की सुगन्धि की सहशता धारण का रही थी, ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-आपका ऐश्वर्य देखने के अभिप्राय से आये हुए देव और विद्याधरों के पुत्रों के लिए पूजा ही छोड़ रहा है। अर्थात्-मानों-उनकी पूजा ही कर रहा है। जो, पेसी चिंधारने की ध्वनि (शब्द) से, जिसकी ध्वनि मेघों-सरीखी गम्भीर और मधुर ( कानों को अमृत प्राय) है, ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-अपने में समस्त राज्यपट्ट-अन्ध-योग्य हस्ति-सेना का स्वामित्व प्रगट कर रहा है। जो ऐसे दोनों नेत्रों के कमल-पराग-सरीखे पिङ्गल (गोरोपना-जैसे वर्णशाली) कटाक्ष-विक्षेपों। द्वारा ऐसा प्रतीत होरहा है-मानों-समस्त दिशारूपी कमनीय कामिनियों पर सुगन्धि धूर्ण ही विखेर रहा कैसे हैं दोनों नेत्र, जिनकी पलकें घनी और स्निग्ध हैं। जिनके दृष्टि-भाग, निश्चल, निर्मल, दीर्थ, पिरोस्पष्ट, लालवर्णवाले और उज्वल ष कृष्ण हैं और जिनकी कान्ति शुक्ल, कृष्ण और लालमणियों जैसी ! है। जो ऐसे दन्त ( खीसें ) युगल द्वारा, जो कि सम ( शोभनविशालना-निर्गम-शाली ), सुनात (बके। हाल सी आकृतिवाले ) और मधु-जैसे वर्णशाली हैं। जो दक्षिण पार्श्वभाग में कुछ ऊँचे हैं एवं जो मुर्गे है। परमों की पश्चात् अङ्गलि-सरीले शोभायमान हैं, ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-स्वर्गलोक के देखने । कौतूहल करनेवाली आपकी कीर्वि के स्वर्गारोहण करने के लिए सोपान-( सीदियों) मागें की रचना रहा है। जो वादपत्र सरीखे ( विशाल ) ऐसे धोनों कानों की, जो कि सिराओं से अमुष्ट नहीं है (सिराबों नसों-से व्याप्त होते हुए), लम्वे, विस्तीर्ण ( चौड़े ) और विशेष कोमल हैं, [ताइन-वश उतार दुई पनि से जो ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-आनन्दभेरी की ध्वनि द्विगुणित कर रहा है। सो विशेष ऊँचा होने के फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होरहा है-मानों-पर्वतों की शिखरों को छोटा कर रहा है।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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