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________________ द्वितीय आश्वासः उत्तम पलवमंगयोगः, R_ संबन्धिलक्षणेम, भवन्तमिवानव गतिरूपसत्यस्वरानकैः प्रियालोकम्, विनायकमिव पृथुपरिपूर्णायतमुख, अशोकयुष्याभवारुण तालुने, कमरकोशांमध शाशप्रकाशमन्तास्थ, पोनोपत्रिशकायमुरोमणिविक्षोभकटककपोलवसु, अनुम्नतामपानसुप्रमाणकुम्भम्, पूर्णस्वकन्धरम्, अलिनीलघनदीपस्निग्धशपेशलम्, समस्तव्यूहमस्तकपिण्डम्, अनसपासनावकाराम, आरोपिसकामुकाकारपरिणतानुवंशम्, सजक्षिम्, अनुपक्षिधपेसकम्, पित्संवतकोन्नतभूमिदेशपशिंगोलाप्याधिम्, अभिव्यक्तोभरपुष्करम्, वराहजघनापरम्, आम्रपलाइसंकाशकोशम , अचीव सुप्रविधितैः समुहकर्माकृतिभित्रापरसबैः पाताल्सले निपतन्तीमुद्धरतमिव मेदिनीम्, उत्सन्दिरष्टमीडिया शनिभनिविधरिलष्टविशतिनामयूसरोह वनसरसि विजृम्भमाणस्य तब यशोहंसस्य मृणालजालानीच परिकल्पयन्तम्, हे देव! यह, वल (मार्ग-गमन, रोकना, मर्दनकरना य भारवाह्न की शक्ति ), शरीर, आयु ( २३ वर्ष से लेकर ६० वर्ष) और जय (येग, उदाहरणार्थ-भद्रजाति के हाथी उत्तम वेग ) इन गुणों के कारण श्रेष्ठ है। यह ब्रह्मदेवता के लक्षणोंवाला होने से ग्राम है। अर्थात्-मनोज्ञ दृष्टि मादि लक्षणोंपाले हाथी को 'ब्राह्म' कहते हैं। हे राजन् ! यह निर्दोषति (हस्ती व अश्यमादि का गमन), रूप ( देव, मनुष्य व विद्याधर-श्रादि का सौन्दर्य ), सत्वं ( मनुष्य, यक्ष व गन्धर्व-श्रादि की शक्ति) और स्वर (मेघ ष शा-आदि की ध्वनि) की समानता से उसप्रकार प्रियदर्शन-शाली है जिसप्रकार आप निर्दोष-प्रशस्त-मन, रूप ष सत्यादि से प्रियदर्शन-शाली है। जो उसप्रकार विस्तीर्ण, परिपूर्ण और पीमुख से शोभायमान है जिसप्रकार विनायक-श्रीगणेश-विस्तीर्ण, परिपूर्ण और दीर्घमुरू से विभूषित है। जिसका तालु इसप्रकार अस्पष्ट लालिमा से अलत है जिसप्रकार 'अशोक वृक्ष का प भस्सष्ठ लालिमा से अलङ्कत होता है। इसके मुख का मध्यभाग, लालकमल-सी कान्ति से शोभायमान है। जिसका शरीर, हवय, भोणिफलक ( कमर के दोनों बगल ), गएष्ठस्थल और ओठ-प्रान्तों में स्थूल और वृद्धिंगत होरहा है। जिसके दोनों मस्तक-पिण्ड न तो अधिक ऊँचे है और न अधिक नीचे झुके हुए है, फिन्तु उत्तम प्राकृति धारण कर रहे हैं। अर्थात्--युवती स्त्री के कुचकलशों जैसे विशेप ऊँचे-नीचे न होकर इचम भाकार के धारफ है। जिसकी गर्दन सरल, मांसल ( पुष्ट ) और छोटी है जो भँवरों सरोदे र. घने, दीर्ष और कान्सि-शाली केशों से मनोज्ञ है। यह सम (भव्यक्त या अवक) व विशेषोत्पल मस्तकपिण्ववाला व विशाल पीठ के अवकाश वाला है। जिसका पृष्ठभाग क्रम से होरी चढ़ाए हुए धनुषाकार को परिणत (शत) हुआ है। जिसका उदर बकरे-सरीखा दोनों पार्श्वभाग में ऊँचा है । जिसके पुरा (फूल) का मूलभाग स्थूल नहीं है। जिसकी पूँछ अपने प्रदेश में कुछ ऊँची और पृथ्वीतल का स्पर्श रनेवाली पेलकी पूँष-जैसी है। जिसकी सैंड के दोनों भाग स्पष्ट दिखाई देते हैं। जिसके शरीर का पश्चिम भाग जंगली सुअर की अपा-सरीखा है। जो आम्र-पल्लव-सरीखे 'अण्डकोशवाला है। जो ऐसे भागे और पीछे के शरीर संबंधी सलों द्वारा, जो विशेष निश्चल हैं और पिटारी व कछुए की आकृत्ति-सरीखे हैं, ऐसा मालूल पड़ता है मानों-रसासल में डूब रही पृधिषी को ऊपर की ओर उठा रहा है। जो अपने पारों पैरों के बीस नखों के ऐसे किरणारों से, जो ऊपर गमन करते हुए अष्टमी के अर्धचन्द्र खरीखे शुभ्र एवं निश्चल और परस्पर में संलग्न है, ऐसा प्रतीत होता है-मानो-बीचलोक । रूपी वासाय में विशेषरूप से व्याप्त होनेवाले आपके यशरूपी हँस के भक्षणार्थ मृणाल-समूहों को ही दिखा रहा है। १. तदुचाम्-'ननु विन्दुसदन्तेषु कुशातलनिभच्छविः। चारुदृष्टिरवमन्येक्षो प्रायः सर्वार्थसाधनः ॥१॥
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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