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________________ द्वितीय श्राधासः मणिरणितमिनादादप्रभाव: परेपो भवति नमसि केवप्रेक्षणादेहसादः । प्रवति च सहसा थे. प्राणि प्राप्तमात्रैः क्षितिप युधि सम सेवाहन नाभ्यदस्ति ॥१७॥ पुरः प्रत्यक्पयनमिभिरभिहन्तुं व्यवसिसे गौः सर्वैर्गास्समरसमये सिन्धरपतौ। विदीयों मासङ्गैस्तुरगनिश्चिापि वरिसं रथी प्रास्तं पदैः पिशितकबलीभूतमचिरात् ॥१८॥ दण्डासंहतभोगमण्डलविधीन् व्यूहान्रणप्राङ्गणे देव विष्टजनश्चिरेण रचिसान् स्वप्न अध्यभेयान् परैः। कोऽभेत्स्यविनाभविष्यदवनीपास्य दानवद्रोणीसोरनिषष्णषट्पदततिरिणो वारणः ॥१८॥ अभिजनकुलवास्याचारदेहप्रशस्त पुविहितधिनयरवेद्यस्य A घेत्कोपि हस्ती।। सपति सपनबिम्बे पानवानामिवैतत्प्रभवति न परेषां चेष्टिस सस्य रामः ॥१८॥ हे राजन् ! युद्ध भूमि पर उन जगत्प्रसिद्ध हाथियों सरीखा दूसरा कोई युद्धोपयोगी वाहन (सवारी) नहीं है। क्योंकि जो पैरों पर धारण किये हुए चक्रों (रत्नमयी आभूषणों) की झनकार-ध्वनि से शत्रुधो का प्रभाव (माहात्म्य) नष्ट करते है और (जिनपर अंधी हुई) आकाश में फहराई जानेपाली पजाओं के दर्शन से शत्रुओं का शरीर भङ्ग होता है। अर्थात्-ऊँचे हाथियों पर भारूड हुए सैनिकों द्वारा जब गगनचुम्बी अवजाएँ फहराई जाती हैं तो उन्हें देखकर शत्रुओं का शरीर सत्काल क्षीण होजाता है और जिनके समीप में श्रानेमात्र से शीघ्र जीवन नष्ट होता है। ॥१७६|| जब विजिगीषु ( विजय के इच्छुक ) राजा के इस श्रेष्ठ हाथी ने युद्ध के अवसर पर आगे और पीछे के शारीरिक भागों से किये हुए दाए बाए भाग के भ्रमणों द्वारा और समस्त प्रकार की वेगशाली गतियों पूर्वक गर्व से मारने के लिए उद्यम किया तब उसके फलस्वरूप शत्रुभूत राजाओं के हाथी शीघ्र विदीर्ण हुए, घोड़ों के समूह भी तत्काल नष्ट हुए एवं रथ भी शीघ्र चूर-चूर हुए तथा पैदल सेना के लोग भी तत्काल मांस-पिण्ड होगए ॥१०॥ हे राजन् ! यदि विजय के इच्छुक राजा के पास ऐसा श्रेष्ठ हाथी, जिसके ऊपर गण्डस्थल-आदि स्थानों से प्रवाहित हुए मद की पर्वतीय नदी के तट पर भँवर-श्रेणियाँ स्थित है और जो महान् कष्ट से भी रोका नहीं जा सकतान होता तो युद्धाङ्गण पर ऐसे सेना-व्यूह ! सेना-विन्यास-भेद ), कौन भेदन ( नष्ट) कर सकता ? अर्थात् कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । जो कि तगडब्यूह ( दंडाकार सैन्य-विन्यास), असंहतज्यूह (यहाँ यहाँ फेला हुआ सैन्य-विन्यास), भोग व्यूह ( सर्प-शरीर के आकार सेना-विन्यास) और मण्डलम्यूह (पर्तुलाकार-गोलाकार-सैन्य-विन्यास ) के भेद से चार प्रकार के हैं, * जो युद्धाङ्गण पर शत्रु-समूहों द्वारा चिरकाल से रचे गए हैं तथा जो विजिगीषु राजाओं द्वारा स्वप्न में भी भेदन नहीं किये जा सकते ॥१८१।। जिस राजा के पास कोई भी अथवा पाठान्तर में एक भी ऐसा श्रेष्ठ हाथी समान होता है, जो कि बभिजनA (मन), कुल ( पितृपक्ष ), जाति (मातृपक्ष ), आधार (अपने स्वामी की अप्रतिकूलताविरुख न होना) और शरीर (ऊँचा सुडौल शरीर ) इन गुणों से प्रशस्त ( श्रेष्ठ) एर्ष सुशिक्षित किया गया है, उस राजा पर शत्रु-चेष्टा (आक्रमण-व्यापार ) उसप्रकार समर्थ नहीं होती जिसप्रकार सूर्य के उवर्ष होने पर दानवों की चेष्टा (संचार) प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि हानष चेष्टाएँ रात्रि में ही प्रवृत्त होती है या A. 'चैकोऽपि' क० । १. दीपकालंकार। २. समुच्चयालंकार । * तदुक्त-'दण्डों दाडोपमव्यूहो विक्षिप्तवायरहतः । स्यानोगिभोगवद्गोगो मण्डलो मण्डलाकृतिः 1॥॥ इति क०। ३, आक्षेपालंकार । A अभिजन मन इति श्रीदेव नामा पलिकाकारः। संकटी पृ. ३.५ से संकलित-सम्पादक ४, कियोपमालंकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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