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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अविनीते स्था राशि न रिं नन्दति क्षितिः । तथाविनीतशुण्मास पलं नारिवो जयेत् ॥१८॥ गस्पिोर्नुप एक एव जेल सहलस्म भरल्पाषाम् । भासीनसिंह नगमायतन्तमस्तारमय प्रसहेत को हि ॥१८॥ छन्ता सहसोऽन्येषां लोकारवाला सहनराः । रणे फरिसमो नास्ति रथेषु नूषु पाजियु ॥१८॥ भुषणशिरसि रस्न वारिधी झोपलो स्फुरदुरगसमन्ते भूमिदेशे निधानम् । अभाविप एवं यवदेषाम्पसत्ववपतिमधिस्वस्तदेव क्षितीशः ॥१८॥ हयः प्रमाये हनने कृताम्सः सहनिदेशेस्त्रविधौ प्रहरू । विष्यसिमी नर्तनधर्मका पिाध्योऽपि चान्यत्र गिरः करीन्द्रः ॥१७॥ माघे मरेवस्य ववमेतत् करिष्षयम् । अस्नानपानमुक्तेषु तरिक्रय: स्यान्न यत्स्वयम् ॥१८॥ जिसप्रचार प्रशिक्षित राजा की पृथिवी चिरकाल तक समृद्धिशालिनी ( उन्नतिशील ) नहीं होसकती उसीप्रकार प्रशिक्षित हाथीवाली सज-सेना भी शत्रु सेना पर विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकती' ||१८३॥ हाथी पर मारूद ( चढ़ा हुआ) हुआ राजा अकेला ( असहाय ) होने पर भी शकों द्वारा हजारों शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। उदाहरणार्थ-स्पष्ट है कि जब ऐसा पर्यंत, जिसमें सिंह स्थित है और जिसने पाषाणों की वृष्टि प्रारम्भ या प्रेरित की है शिर पर टूट रहा है, तो उसे कौन पुरुष सहन कर सकता है? अपितु कोई नहीं सहन कर सकता। भाषार्थ-जिसप्रकार सिंह की मौजूदगीषाले और पाषाण-वृष्टि करनेवाले पर्वत को शिर पर टूटते हुए कोई सहन नहीं कर सकता उसीप्रकार हाथी पर आरूढ़ होकर शस्रों द्वारा युद्ध करते हुए राजा को भी जीतने के लिए कोई समर्थ नहीं होसकता। किन्तु इसके विपरीत यह राजा हजारों शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करता है ।।१८।। क्योंकि हाथी हजारों शत्रुओं को नष्ट करता है और शत्रु द्वारा प्रेरित किये हुए हजारों शरा-प्रहार सहन करता है, इसलिए रथों, घोड़ों और पैदल सेनाओं में से कोई भी सेना युद्ध-भूमि पर हाथी की तुलना नहीं कर सकती ॥१८॥ हे राजन् ! जिसप्रकार सर्प के मस्तक (फया ) में स्थित हुआ रत्न दूसरे प्राणियों द्वारा प्रहण नहीं किया जा सकता और जिसप्रकार समुद्र-मध्य में स्थित हुप लङ्कादि द्वीपों का निवासी मनुष्य दूसरे प्राणियों द्वारा प्रहण नहीं किया जा सकता एवं जिसप्रकार जिसके समीप में सर्प फैल रहे हैं ऐसे पृथिवी-देश के मध्य स्थित हुई निधि ( पनावि । दूसरे मनुष्यों द्वारा ग्रहण नहीं की जा सकती उसीप्रकार हाथी पर चढ़ा हुआ राजा भी दूसरे मानवों (शत्रुओं) द्वारा ग्रहण (परास्त) नहीं किया जा सकता ॥१८६।। हे राजन् ! श्रेष्ठ हाथी घोड़ा-सा तेज दौड़ता है, यमराज सरखा शत्रु-घात करता है नौकर-साशाहा-पालन करता है एवं शक संचालन विधि में प्रहार करनेवाला । अर्थात-जसप्रकार प्रहार करनेवाला शरू-संचालन हा करता हुआ शत्रु-घात करता है उसीप्रकार हाथी भी लँड, खींसें, 'पारों पैर व पूंछ-आदि अपने शारीरिक महोपाङ्गरूप शत्रों द्वारा शत्रु पर प्रहार करता हुआ उनका घात करता है और नृत्य के अषसर पर बेश्या (वेश्या-सरीखा नृत्य करनेवाला ) है एवं यह अक्षर रूप बोलना छोड़कर शिष्य है। पर्यात्-केवल अक्षर रूप बचनों का बोलना छोड़कर बाकी सब कार्य (आझापालन यादि) शिष्य-सरीखा करता है । जानता है ॥ १८७॥ इस्ती संग्रह करने के अवसर पर राजा का यह नियम होता है कि यह इस्तियों के स्नान, पान और भोजन किए बिना स्वयं स्नान, पान व भोजन करनेवाला नहीं होता ।। १८८ ।। *. 'अस्नानपा-भुक्कषु' क. .. स्यान्नालंकार । १. आक्षेपालंकार । ३. उपमालधार । ४. रटान्तालार। ५. असमस्तरूपकालंकार। जाति-अलंकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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