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________________ २६८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पासकानां समस्ताना हे परे पासके स्मृते । एक दुःसचिवो राजा द्वितीयं च साश्रयः ॥ १३॥ दुर्मन्त्रिणो नूपसुतासमहान्स लाभः प्राणैः समं भवति यत्र वियोगमात्रः ।। सूनाकृतो गृहसमेत्य ससारमेयं जीवन्मृगो यदि निति तस्य पुण्यम् ॥ १३ ॥ शास्त्रकारों द्वारा समस्त पापों के मध्य दो पाप उत्कृष्ट कहे गए हैं। पहला पाप राज्य में दुष्ट मन्त्री का होना और दूसरा पाप दुष्टमन्त्री सहित राजा का होना। अर्थात्- ऐसे राजा का होना, जो कि दुष्ट मन्त्री के माश्रय से राज्य संचालन करता है ।।१३०॥ दुष्ट मन्त्रीवाले राजपुत्र से प्रजा को बद्दी जगत्प्रसिद्ध महान् लाभ है, जो कि उसका (प्रजा का) प्राणों के साथ वियोग नहीं होता । अर्थात्-प्रजा मरती नहीं है। उदाहरणार्थ---कुत्तों से व्याप्त हुए सूनाकृत ( खटोक-कसाई ) के गृह ( कसाईखाने ) में प्राप्त हुआ हिरण यदि जीवित रहकर वहाँ से निकल कर भाग जाता है तो उसकी प्राणरक्षा में उस हिरण का वही पुण्यकर्म कारण है। भावार्थ-जिसप्रकार खटीसाईन्सुरुष के कुत्तों से ध्यात हुए हमें प्रविष्ट हुआ हिरण यदि जीवित होकर वहाँ से निकल जाता है तो उसकी प्राण-रक्षा में उसका पुण्य ही कारण समझा जाता है, अन्यथा उसका मरण तो निश्चित ही होता है. उसीप्रकार दुष्ट मन्त्रीवाले राजा के राज्य में रहनेवाली प्रजा का मरण तो निश्चित रहता ही है तथापि यदि वह जीवित होती हुई अपनी प्राण-रक्षा कर लेती है, तो यही उसे उस दुष्ट मंत्रीवाले राजा के राज्य से महान लाभ होता है, इसके सिवाय उसे और कोई लाभ नहीं होसकता। प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री ने कहा है कि "तुष्ट राजा से प्रजा का विनाश ही होता है, उसे छोड़ कर दूसरा कोई उपद्रव नहीं होसकता। हारीत नासिवेत्ता भी लिखता है कि 'भूकम्प से होनेवाला उपद्रव शान्तिकर्मों ( पूजन, जप व हवन-आदि) से शान्त होजाता है परन्तु दुष्ट राजा से उत्पन्न हुआ उपद्रव किसीप्रकार भी शान्त नहीं होसकता ॥१॥' दुष्ट राजा का लक्षण निर्देश करते हुए आचार्य श्री लिखते हैं कि 'जो योग्य और अयोग्य पदार्थों के विषय में शान-शून्य है। अर्थात्-योग्य को योग्य और अयोग्य को अयोग्य न समझ कर अयोग्य पुरुषों को दान-सन्मानादि से प्रसन्न करता है और योग्य व्यक्तियों का अपमान करता है तथा विपरीत बुद्धि से युक्त है- अर्थात्-- शिष्ट पुरुषों के सदाचार की अवहेलना करके पाप कमों में प्रवृत्ति करता है, उसे दुष्ट कहते हैं। नारद विधान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है। मूर्ख मन्त्री की कटु आलोचना करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि 'क्या अन्या मनुष्य कुछ देख सकता है ? अपि तु नहीं देख सकता। सारांश यह है कि नसी प्रकार अन्धे के समान मूर्ख मन्त्री भी मन्त्र का निश्चय आदि नहीं कर सकता। शौनक नीतिवेत्ता बिदाम के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है। मूर्ख राजा व मूर्ख मंत्री की कटु आलोचना करते हुए भाचार्य लिखते १. रूपकालधार। २. तथा च सोमदेवसूरिः-न दुर्षिनीतादाशः प्रजानां विनाशादपरोऽरत्युरपात ॥१॥ ३. तथा च हारीतः-उत्पातो भूमिकम्पाद्यः शान्तिकैयोति सौम्यता । नृपयत्ता उत्पातो न कथंचित् प्रशान्यति ॥१॥ ४. तथा च सोमदेवसूरि:-गो युचायुक्तयोरविवेकी विपर्यस्तमतिर्वा स दुविनीतः ॥१॥ ५, तथा च नारदः--युक्तायुक्तांववेवं यो न जानाति महीपतिः । दुर्वृतः स परिशेयो यो वा वाममतिमवेत् ॥१॥ ६. तथा च सोमदेवसूरि:--किं नामान्धः पश्येत् ॥१॥ ५. तथा च शौनकः-यद्यम्धो वीक्ष्यते किंचिद् घट चा पटमेव च तदा मूनोऽपि यो मंत्री मंत्रं पश्येत् च भूमताम् ॥१॥ ८. तथा च सोमदेवमूरिः–किमब्धेनाकृष्यमाणोऽन्धः समं पन्धान प्रतिपद्यते ॥१॥
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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