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________________ ५५ प्रथम आश्वास जिताकुलिसजलकेन्दिाधिकाकलाईससंसदि, रमणरतनिरतवनितारसिरसोत्प्लेकविचद्विविधाफिलालम्यामोपसुरमितसुमाभुजङ्गनाभीवलभिगमे, समालदलनिसरसपूरितकरकिरालपपुटेम् पमितमखलेखमीधारिणा खचरनिचयेन रव्यमानसहचरीकपोलफलकतलतिलकविचित्रपरनभक्तिनि, सरताभियुसकुम्हारिकातालुसलोत्तरलतररुतोरप्लावितनिचुतमूलविलनिलीमोलकपालकालोकनाकुलकाकोलकुलकोलाहलकाहळे, बहकोकिलापगलितजस्य निसगांदुत्ताकतासुरतसंरम्भिणः परपालामनस्य कलगलोलसचोहोचपितानुरूपनपरसारिकाशावसंकुलकुलायकरलोपकण्ठजरविताभिनवाङ्गलारतिघेतसि, माकदमामकरन्दविन्दुस्यन्दतुर्दिनेन मुचकुन्दमुकुलपरिमलोहासिना प्रचलाकिकुलकलापसीमन्तोचितेन वासघातकेनाचम्ममानसुरसभमखिसखेवरीपयोधरमुग्खलुलितघनधर्मजलमारीबाले, निघुननविधिविधुरपुरप्रकापरवयितदीपमानानमयरकचारितदर्दरीकबीसीधुमि, पुण्डाकाण्डमण्डपसंपातिनीभिः पिपरिवनियस्तरमामरिसविधिमारवाकाण्डताण्डविसिकिमपर, जिनके माशों का विस्तार केले के पत्तारूप अब के उबलन भार से ज्याप्त हुए पतिके बाहुन मण्डल की विनय (हस्त द्वारा झुकाने ) करने से प्रकट दिखाई देता था। जहाँपर विपरीत मैथुन में तत्पर हुई कमनीय कामिनी की भोग संबंधी रागकी अधिकता के फलस्वरूप विकसित मोगर-पुष्पों की घुटनों तक लम्बी पुष्पमाला टूट गई थी और उसकी मनमोहनी सुगन्धि द्वारा सौभाग्यशाली कामी पुरुषों की नाभिरूपी बलभी (छज्जा) का मध्यभाग सुगन्धित किया गया था। जहॉपर ऐसे विद्याधर-समूह द्वारा समर्पित किये जानेराले विद्यारियों की गाल-स्थलीरूप पाट्टका के ऊपर तिलक से विद्याधरियों के गालों पर की हुई पत्र रचना विचित्र (चमत्कार जनक) प्रतीत होती थी, जिसने अपना हस्तपाल्लव पुट तमाल के पत्तों से निकाले हुए रससे व्याप्त किया था और जो बनाई हुई नखरूप लेखनी का धारक था। जिसमें ऐसे उल्क-जचे के देखने से पिाल हुई काकपक्षियों की श्रेणी के कल कोलाहल से प्रस्फुट शब्द वर्तमान था, जो दुर्जन की संभोग क्रीड़ की अधिकारिणी और जलसे परिपूर्ण घट को धारण करनेवाली दासी के तालुतलसे उत्पन्न हुए उत्कण्ठित शब्द द्वारा उड़ाया गया था और वृक्ष की मूल में वर्तमान छिद्र में गुप्तरूप से स्थित था। जहाँपर ऐसे वृक्ष के समीप, जिसमें ऐसे घोंसले थे जो कि कोकिल प्रलाप (निरर्थक शब्द) द्वारा नष्ट लावाली व स्वभावतः विशेष उत्कएठा पूर्वक काम सेवन में तत्पर हुई वेश्याओं के मधुर कएठ से प्रकट हुए अस्पष्ट शब्द को बार बार उधारण करने में प्रयत्नशील तोतों के बच्चों से भरे हुए थे, वाला ( षोडशी) स्त्री की रतिविलास संबंधी मनोवृत्ति विशेष प्रौढ़ होचुकी थी। जहाँपर मैथुन के खेद से दीनता को प्राप्त हुई विद्याधरियों के कुच कलशों के अग्रभागों पर लोटते हुए प्रचुर प्रवेद-जलों के मअरी-जाल (बल्लरी-समूह) ऐसे घायुरूप घातक (पपीहा) द्वारा श्रास्वादन किये जारहे थे, जो विशेष सुगन्धि आम्रवृक्ष की पुष्पवल्लरियों के पुष्परस संबंधी विन्दुओं के झरण से धूसरित एवं मुचकुन्दों ( माघ पुष्पों) की कलिकाओं के मदन यश उत्पन्न हुई सुगन्धि से सुशोभित और मयूर मण्डलों के पंख समूह रूप केशपाशों से योग्य था। भावार्थ-उत्त तीनों विशेषणों द्वारा क्रमश: वायु की शीसलता, सुगन्धि व मन्द-मन्द संचार का निरूपण समझना चाहिए। इसीप्रकार जहाँपर मैथुन क्रीड़ा फी कामशास्त्रोक्त विधिसे पीडिस किए हुए नवयुवतियों के ओष्ठ पल्लवों पर ऐसा दाखिमषीज रूप मद्य वर्तमान था, जो कि पति द्वारा आरोपित किया जा रहा मुखरूप पानपात्र से संयोजित किया गया था। पीत क्षु की प्रकाण्डशाला में प्राप्त हुए कामुक पुरुष-समूह द्वारा तेजी से तारे गए नगाड़ों के वृद्धिंगव शब्दों को सुनकर जहाँपर मयुर-मण्डल का असमय में ताण्डव नृत्य होरहा था। भावार्थ AB * 'माकन्दविन्दुस्यन्ददुर्दिवेन' इति (ग) प्रतौ । टिप्पण्या तु A. धान। B. प्रवाह । C. मेघच्छन्नेऽशि दुर्दिनमित्यमरः इति लिखितं ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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