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________________ पुतीय भामा बीमूलकान्तिपनपोपहर करीन्द्रलीलागविराज्यगन्धः । प्रिया पर माल्मविवेपनानाम्गरोहणाईस्मुरुगो सुपस्य ॥२०॥ कदनकम्वुलकेविविवासिनः परवलसने परिधा हयाः । सकलभूवक्ष्येक्षणहत्या समरकालमनोरथसिद्धयः ॥२०॥ भन्यूनाधिकदेवा समविभक्कारच वर्मभिः सवः । संहब्धनागवाया। सतविन्याः कामदास्तुरमाः ॥२०६॥ जयः फेरे तस्य रणेषु राक्षः काके पर पति वासवश्व । धर्मार्थकामाभ्युक्यः प्रजानामेफोऽपि पस्यास्ति यः प्रशस्तः ॥२०॥ कुलाचालकुवाम्मोधिनितम्बा पाहिनीभुजा। घरा पुरानना बीब तस्य पस्य तुरङ्गमाः ॥२८॥ इति पन्विभ्यां ताभ्यामुत विझसी निशम्य विभाण्य च पचालयमाधिकमास्पृष्टकमुत्तरीयदुकुहासपिहितबिम्बिना सिद्धादेशप्रमुखेन मौतुतिकसमाजेन, 'देव, प्रासादं संपाद्य प्रतिमा निवेशयेत् , प्रसिमां धा निघेश्य प्रासाद संपायर, __ऐसा घोड़ा राजा के आरोहरण-योग्य (सवारी-नायक) है, जो मेध-जैसा श्याम है। जिसकी हिनहिनाने की ध्वनि मेघगर्जन की ध्यनि-साश गम्भीर है एवं श्रेष्ट हाथी-सरीमा विना खेद के मन्दगमन करनेवाले जिसका शरीर घीसा सुगन्धित है तथा जो फूलों व चन्दनादि से विशेष अनुराग रखता है। अर्थात्-ओ • पुष्पमालाओं से अलंकृत होता हुआ चन्दनादि सुगन्धि द्रव्यों से लिप्त किया गया है। ॥२०४। ऐसे घोड़े श्रेष्ठ समझ जाते हैं, जो युद्ध रूपी गेंद से क्रीड़ा करने में आसक्त हुए शत्रु-सेना को रोकने में अर्गला ( वेड़ा)। अषोत-जो शत्रु-सेना को उसप्रकार रोकते हैं जिसप्रकार बेड़ा दूसरे का आगमन रोकता है। जिसके नेत्र समस्त पृथिवीमण्डल को देखने में समर्थ है और जो संग्राम के अवसर पर विजिगीषु के मनोरम (विजयलाभ आदि) सिद्ध (पूर्ण) करते है ॥२०।। ऐसे घोड़े अभिलषित फल देनेवाले होते है, जिनके शारीरिक अङ्गोपाङ्ग (पेर छ पीठ-आदि) न हीन हैं और न अधिक है। जो समस्त ऊँचाई, पौधाई व विशालता से समान व सुडौल विभक्त हैं एवं जिनकी शारीरिक रचना समुचित था हद और निषिक ( घनी)? और जो सूर्यमण्डल व चन्द्रमण्डल-आदि अनेक प्रकार की पतियों में शिक्षित किये गये ॥२०६॥ जिस पजा के पास एक भी उक्लदाण-युक्त प्रशंसनीय थोड़ा होता है, उसके करकमलों पर विजयलक्ष्मी रहती है। उसके राज्य में मेघों से अलवृष्टि समय पर होती है और उसकी प्रजा के धर्म (अहिंसा व परोपकार-आदि), भर्य (धन-धान्यादि) एवं काम ( पुष्पमाला प सी-सुख एवं पंचेन्द्रिय के सुख) इन तीनों पुरुषार्थों की उत्पत्ति होती है ॥२०७|| जिस राजा के पास प्रशस्त घोड़े होते हैं, यह पृथिवी ऐसी बीन्सरीखी उसके बरा में होजाती है, उदयाचल और अस्ताचल ही जिसके कुच (स्तन) कलश , समुद्र ही जिसके नितम्ब है और गाव सिन्धु नदियाँ हो जिसकी दोनों भुजाएँ हैं एवं राजधानी ही जिसका मुख है" ।।२०।। इसप्रकार उक्त 'करिकलाभ' और 'काजिविनोदमकरन्द' नामके स्तुतिपाठकों द्वारा कहीं हुई विवासियों (विज्ञापन) श्रवण कर मैंने पर्ने अपने शरीर पर धारण की हुई ऐसी वस्त्राभूषण-आवि बस्तुएँ प्रदान की, जो कि मेरे शारीरिक पांचों भको ( कमर, उसके ऊपर का भाग (पक्ष स्थल), दोनों हाथ और मस्तक) पर धारण किये हुए पस्त्राभूषणों से भी विशेष उत्कृष्ट ( बहुमूल्य ) थीं। तत्पश्चात् रेशमी दुपट्टे के प्रान्त-भाग से अपना मुख आच्छादित किये हुए और "सिखाया 1. उपमालङ्कार । २. रूपकालंकार । ३. समुसयालदार । ४, समुच्चयालद्वार। ५. रूपकालाहार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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