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________________ मास्तिकपम्पूमध्ये मजेनाकीस्ववानकानां सीसतानानासानाम् । समस्राः स्वामिनि भोषिशेन मवनित पाहाः पिरमरोहा १९ सोरेजनोमोसमाती समिक्षीरमदै समानाः । देव सुख भोगांशु या धाविनः कामदा सूपेषु १९९५ ईसप्याप स्परिपसासनिमः । मिलम क्षितीमानामानूविजयप्रदाः ॥२०॥ महकानुशेमयकृषिशासणाचनसमा। बोलावारिनिमावसोनाम ॥२१॥ पक्षसि बाहोरलिके सफदेने वर्गमूल्योरक्षेत्र । मावास्तुरगाणां सस्ता केशान्तयोस्तया शुक्तिः २०॥ विवाहमाला पहिरानसस्थाः सूक्ष्मत्वयः पीवरवदेशाः । सुदीपबहाः पृथुपृष्ठमध्यास्सन्दराः कामकृतस्तुरङ्गाः ॥२०॥ अर्थात-गोरोचना-जैसे वर्णशाली व इन्द्रनील मणि-जैसे श्याम है एवं जिनका प्रकाश ( वर्ण ) उदय होते हए सूर्य, अशोकवृक्ष और शुक-सरीखा है। अर्थात्-जो अव्यक्त लालिमा-युक्त, रक्तवर्ष व हरितवर्णशासी ॥१९७|| ऐसे घोड़े अपनी ध्वनि (हिनहिनाने का शब्द ) द्वारा निश्चय से राजा का महोत्सव प्रकट करनेवाली चेष्टा-युक्त होते हैं, जिनके शब्द श्रेष्ठ हाथी, सिंह और वृषभ-सरीखे हैं एवं जो मेरी, सदा, पटह और मेघ जैसी गम्भीर ध्वनि (शब्द) करते है ।।१४।। जिन घोड़ों के स्वेद, मुस्त्र और दोनों कानों में, कमल, नीलकमल और मालती पुष्प-जैसी सुगन्धि होती है और जिनकी घी, मधु, दूध व झायियों के मद (गण्डस्थल-आदि स्थानों से झरनेवाले मदजल) सरीखी गन्ध है, ऐसे घोरे राजाओं के लिए इच्छित वस्तु (विजय-खाभ आदि ) प्रदान करनेवाले होते है ।।१६। जिन घोड़ों के नितम्ब : (कमर के पीछे का भाग), इंस, बन्दर, सिंह, हाथी और व्याघ्र-जैसे शक्तिशाली होते हैं, वे राजाओं के लिए विजयलक्ष्मी प्रदान करते हैं ॥२०॥ घोड़ों के ऐसे रोमों के बावत ( भंवर ) श्रेष्ठ (प्रशंसनीय व गुमसूचक) होते है, जो वजा ( पताका ), हल, घट, कमल, घन, अर्धचन्द्र, चन्द्र और पृषिषीवल-सरीखे होते हैं एवं ओ धोरण ( द्वादशस्तम्म-विन्यास-गृह के बाहर का फाटक) और वन-जैसे होते है ॥२०१।। पोड़ों के हदयस्थल, पाडू, मस्तक और चारों खुरों (टापों) के ऊपरी भागों पर सथा कानों के दोनों मुखभागों पर वर्तमान एवं गर्दन के दोनों भागों पर स्थित सीप-जैसे आकारयाले पाषर्त (केश-भैर या अपयलेबाल) भेष्ट होते हैं ॥२०२| ऐसे घोरे अपने स्वामियों के लिए इष्टफल (विजयलाम-आदि ) देनेवाले होते है, जिनका मस्तकस्यान विस्तृत और बायप्रदेश संबंधी मुख नम्र ( भुका हुभा ) होता है। जिनका धर्म सम्म और माहु-वेश आगे के पैर की जगह) स्थूल होते हैं। जिनकी जाएँ लग्बी और पीठ (बैठने का स्थान) विस्तीर्ण होती है और जिनका उदरभाग (पेट) कश ( पतला) होता है: ।।२०३६॥ हपितेम । "परमुत्सवाय' क०, प०, २०,। उक्त शुरूपाठ: स. प्रतितः संकलितः । मु. प्रतोद साहाकारमा' पाठः । विमर्श:-मु. प्रतिस्थपाठेऽष्टादशमात्रामभावेन छन्द(आर्य भङ्गदोषः-सम्पादकः । लिपदेखे (बसाटे) क.। 'शुतो. १. उपमालहार।. २. समुषयालबार । ३. उपमालकार। ४. उपमालाहार । ५. उपमालाहार । सामर । मारियांकार । - - -
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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