________________
।
द्वितीय आवास:
प्रस्तावे वाजिविनोदमकरन्देन वन्दिना सलीलमभ्यधायि तुरङ्गमगुणसंकीर्तनानीमानि तानि - गिरयो गिरिकप्रख्याः सरितः सारिणीसमाः । भवन्धि कुने यस्य कासारा देव सागराः ॥ १९९ ॥ एता दिशश्वतखोऽपि चतुश्चरणगोचराः । स्यदे यस्य प्रजायन्ते गोपुराङ्गणसन्निभाः ॥ ११२ ॥ प्राप्नुवन्ति जये यस्य भूमावपतिया अपि । निपादिनां रक्षिताः शस्यवालाः करमद्दन् ॥ १९३॥ यस्य प्रदेशला सकाननधराधरा धरणात १९
।
किं च । वामाचिद्दपृष्ठे वंशकेसर शिरःश्रवणेषु । वस्त्रनेत्रहृदयोदरदेशे कण्ठको स्तुर जानुभयेषु ॥ १९५॥ अन्यत्र स्वल्पदोषोऽपि यद्येतेषु न दोषवान् । शुभात्रविद्वायो यः स्थानियदः ॥ १९६॥ मुक्ताफलेन्दीवर काञ्चनाभाः किंजल्कभिन्नानङ्गशोभाः ।
कारण शोकशुकप्रकाशास्तुरङ्गमा भूमिभुजां । वयेाः ॥ १९७ ॥
3
fuu
इसी अवसर पर 'बाजिविनोदमकरन्द' नाम के स्तुतिपाठक ने अश्व-गुणों को प्रकट करनेवाले निम्नप्रकार श्लोक विद्वत्तापूर्वक पढ़े
जिस श्रेष्ठ घोड़े में लाँघने ( उलने ) की ऐसी अद्भुत शक्ति होती है, जिसके फलस्वरूप पर्वत क्रीड़ा कन्दुक (गेंद) सरीखे और नदियाँ सारिणी - ( तलैया ) जैसी एवं समुद्र तडाग-सदश लाँघने योग्य होजाते हैं ||१६|| जब यह वेगपूर्वक दौड़ना आरम्भ करता है तब चारों दिशाएँ ( पूर्व व पश्चिमआदि ) इसके चारों पैरों द्वारा प्राप्त करने योग्य होती हुई नगर द्वार की अमभूमि सरीखी सरलता से प्राप्त करने योग्य होजाती है ||१२|| जिसके (घोड़े के) वेगपूर्वक दौड़ने के अवसर पर अश्वारोहियों (घुड़सवारों) द्वारा आगे पृथिवी पर फेंके हुए पुलसहित माण पृथिवी पर न गिरकर उन्हीं घुड़सवारों के हस्त से महण करने की योग्यता प्राप्त करते हैं। भावार्थ- विशेष वेगपूर्वक दौड़नेवाले घोड़ों पर आरूढ़ हुए घुड़सवार घोड़ों को तेजी से दौड़ाने के पूर्व सामने पृथिवी की ओर बाण फेंककर वाद में घोड़े को तेजी से दौड़ाते हैं, उस समय बाणों को पृथी पर पहुँचने के पूर्व ही घोड़ा पहुँच जाता है, इसलिए घुड़सवार उन बाणों को पृथिवी पर न गिरते हुए भी प्रहण कर लेता है। निष्कर्ष - प्रस्तुत श्लोक में 'अतिशयोक्ति अलंकार पद्धति से घोड़े की वेगपूर्ण गति का वर्णन किया गया है ||१६|| जिसके विशेष वेगपूर्वक दौड़ने के अवसर पर बन और पर्वतों सहित यह पृथिवी ऐसी मालूम पड़ती है-मानों-घोड़े की टापों से चिपटी हुई हो मार्ग पर उसके साथ दौड़ रही सी दृष्टिगोचर होती है ॥१६४॥
ऐसा घोड़ा, जिसके आवर्त ( भँवर या घुंघराले बाल ), छवि (रोमतेज ) और कान्ति ये तीनों गुण शुभ सूचक हैं । इसीप्रकार जो केश सहित पूँछ, रोमश्रेणी, पीठ, पीठ की हड्डी, स्वन्ध केशों की झालर, Here, दोनों कान, मुख, दोनों नेत्र, वक्षःस्थल, उदर-स्थान, गर्दन, कोश ( जननेन्द्रिय), खुर ( टाप ) और जाओं की सन्धि ( जोड़ ) एवं वेगपूर्वक दौड़ना इन स्थानों में दोष-युक्त ( उदाहरणार्थ - केश - शून्य पूँ, रोम-शून्यता और ऊबड़-खाबड़ पीठ आदि ) नहीं (गुणवान ) है। इसीतरह जो उक्त स्थानों को steer यदि अल्प दोष युक्त भी है तथापि शत्रुओं को पराजित करता हुआ विजयश्री उत्पन्न करनेवाला होता है ।।१६५ - १६६ युग्मम् ।। राजाओं के ऐसे अश्व (घोड़े ) शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, जिनकी कास्ति मोतियों की श्रेणी, नीलकमल और सुवर्ण-सहश है । अर्थात् — जो शुक्ल श्याम व रक्तवर्ण-शाली हैं एवं जिनका वर्ण पुष्प- पराग, मर्दन किया हुआ अञ्जन और भँवरों सरीखा है।
* 'स्याद्विजयावहः'
1 ' जयाय रु घ०, य० ।
१. उपमामभ्यदीपकालंकार । २. उपमालङ्कार । ३. अतिशयालङ्कार । ४. क्षालङ्कार ५. समुच्मालङ्कार