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________________ यशस्सिलकपम्पूकाव्ये मोररूहबईमिव तहिन समोठविलास, देव देवस्य पक्ष्यमित गम्भीर तालुनि, कमलकोशामिव शुभयुमन्तरास्य, चन्द्रकलाशकलसंपादितमित्र सुन्दरं दशनेषु, समीकुखकालरामिद पीवरं स्कम्भे, भटजूदमियोद्धं कृपीटदिशि, अजर जवाभ्यासादित मुविभनवनगानम्, अमलीकैः खरखुराकृतिभिः शऊर्गतिप्रारम्भेषु रजस्वलत्यादिव भुवमस्टशन्तम्, अमृतबारधिप्रतिबिम्बितेन्दुसंवादिना निटिलपुण्डकेग कश्यन्तमिव सकलायामिलायामनिपालस्यैकात पनवर्य*मैम्बर्षस्वम्, अहीनाविचिजनाविचलितप्रदक्षिणतिभिर्देवमणिनिःश्रेणिश्रीवृक्षरोधमानादिनामभिरावः शुक्तिमुकुलावलीउकादिभित्व तद्विमे देशभितोचितप्रदेशमुदाहरन्तमिव देवस्य कल्याणपरम्पराम्, परमपरैरपि लक्षणैर्दशस्वपि क्षेत्रेषु प्रशस्त विजयवैनतेयनामधेयमत्र हे देव! जिसप्रकार कमल-पत्र कृश (पतला) होता है उसीप्रकार उसके श्रोष्ट-प्रान्तभाग, पोष्ट और जिल्ला भी कृश (पतली है। हे राजन् ! उसके तालु आपके हृदय सरीखे गम्भीर हैं। हे राजन् ! उसके मुख का मध्यभाग कमल के मध्यभाग-जैसा शोभायमान है। हे राजन् ! उसकी विशेष मनोझ दन्तपक्ति ऐसी प्रतीत होरही है.-मानों-द्वितीया संबंधी चन्द्र-स्वप्डों से ही रची गई है। हे देव ! उसका स्कन्ध लक्ष्मी के कुच (स्तन) कलश-सरीखा स्थूल है। हे देव ! जिसप्रकार वीर पुरुष का केशपाश तनूदर (वीच में पतला या विरला ) तथा बैंधा हुआ होता है उसीप्रकार उस घोड़े रत्न का उदरभाग भी तनु (कृश और बंधा हुआ (पुष्ट, राजन नि प्रयास करने से ही मानों-जिसका निविड (घना) शरीर अच्छी तरह पृथक पृथक् 'अलोपालों में विभक्त किया गया है। हे देव ! बह घोड़ा रल जब दौड़ना प्रारम्भ करता है तब रेखाओं से शून्य और गधे के खुरों-सरीखी आकृतिवाली अपनी टापों द्वारा पृथिवीरुपी स्त्री का इसीलिए ही मानों-स्पर्श नहीं करता, क्योंकि वह रजस्वला (धूलि से व्याप्त और स्त्रीपक्ष में समती-मासिकधर्मवाली ) होचुकी है। यह ऐसे मस्तक-तिलक द्वारा, जो कि क्षीरसागर में प्रतिविम्बित हुए पूर्ण चन्द्र का अनुकरण ( तुलना ) करता है, अपने राजा का समस्त पृधिवी मण्डल पर एकच्छत्र की मुख्यतावाले ऐश्वर्य का स्वामित्व ही मानों-प्रकट कर रहा है। हे राजन् । वह अश्वरत्न, ऐसे रोमों के आवतो ( जल में पड़नेवाले गोलाकार भँवरों सरीखे रोम कूपों) से योग्य स्थानों (मुख, नासिका व गर्दनआदि शारीरिक अङ्गोपाङ्गों) का आश्रय कर रहा है। अर्थात् --उसके मुख व मस्तक आदि शारीरिक अनो पाङ्गों पर ऐसे रोमकूप पाए जाते हैं, जिनसे वह ऐसा प्रतीत हो रहा है-मानों-आपकी कल्याएपरम्परा को ही सूचित कर रहा है। फैसे हैं वे रोमावत ? जिनकी दाहिनी ओर की प्रवृत्ति (रचना) न्यूनता-रहित, विशेषकान्ति-शाली तथा नष्ट न होनेवाली है एवं जिनके देवमणि (गर्दन के नीचे माग पर स्थित हुए रोमकूपों की 'देवमणि' संज्ञा है) निःश्रेणि (मस्तक के ऊपर स्थित हुए तीन रोम-कूपों की 'निःश्रेणि महा है), श्रीवृक्ष ( पर्याण-प्रदेश के रोमकूपों की श्रीवृक्ष संज्ञा है) और रोचमाल ( कण्ठ-प्रदेश संबंधी रोमकूपों ) नाम है। इसीप्रकार उनके दूसरे विशेष भेदवाले ऐसे रोम-श्रावों से भी शोभायमान होता हश्रा वह अश्वरल आपकी कल्याणपरम्परा को सूचित कर रहा है, जो कि शुक्ति (सीप की आकृतिसरीखे रोमकूप ) मुकुल ( कुडमल-अधखिली पुष्पकली-समान रोमकूप) और अवलीढक( गवालीढ-समान प्राकार वाले ) आदि के भेद से अनेक भेदवाले हैं। इसीप्रकार हे राजन् ! जो प्रस्तुत 'विजयवैनतेय' नामका पोहारत्न दश प्रकार के शारीरिक अङ्गोपाङ्गों (मुख, मस्तक, गर्दन, पीठ, हृदय, हृदयासनकक्षा, नाभि, कुनि, खुर और जानु ) पर वर्तमान अन्य दूसरे प्रशस्त चिन्हों से अलकृत होने के कारण श्रेष्ठ है। *, 'ऐश्व स.। १.-तथा चोचम्—'तानि वक्त्रतिरोपीवावंशोवक्षश्च पश्चमम् । इदयासनकक्षाश्च नाभिः सप्तममेव च। क्यारम पुरे जानु नाच दशमं मतम् ।'
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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