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द्वितीय भाभारः देव देवमिव सम्मलोस्वरेण, देष [ देवमिव कुन काम्बोजा, वाजिब बोल, देव देवस्य पोराणिमिव क्षेत्रमा वर्णन, देव देवस्व चित्तमिव सूक्ष्मदर्शन सनूरेषु, देव देवस्पारिबर्गमिव मभवंशं पृष्ठप्रदेवो, देव देवस्य वीरश्रीविलासपामरमिव रमणीचं वाधी, देव देवस्य कीर्तिकुलदेवताकुरतालकलापमिव ममोहरं सरेषु, देव देवस्य प्रतापमिव विशाल सखारसबसवमवस्लिादेषु, देव शिखण्डिकपडाभोगमिव कान्त कन्धराधाम्, भाभार्धमिव पराध्य शिरसि, प्लक्षातपरिवतितपृष्ठमिष कानीय कर्मयोः, उल्लिखितमिव निर्मोसं हनुमानुजनावदमीणा, टिकमणिविनिर्मितमिल सुप्रकाा कोधनयो, हे नरेन्द्र ! यह ध्वनि (हिनहिनाने का शब्द ) से उसप्रकार समुद्रधोगः । समुद्र के समान गम्भीर ध्यान करमेषाला) है जिसप्रकार आप प्रशस्त (कर्णप्रिय ) ध्वनि (पाणी) बोलने के कारण समुद्रघोष ( सामुद्रिकशास्त्र-ज्योतिर्विद्या-में बताई हुई माङ्गलिक वाणी बोलनेवाले ) है। हे राजन् ! जिसप्रकार श्राप प्रशस्तफुल (क्षत्रिय बंश) में अत्पन्न हुए हूँ इसीप्रकार यह घोडारल भी बेष्ट बाल्होक देश में उत्पन्न हुआ है। हे राजन् ! यह वेग ( तेजी ) से संचार करने में गरुक या अश्वराज (उचैःश्रवाः-न्द्र का घोड़ा) सरीखा बेगशाली है। हे देव ! वह प्रशस्त श्वेत रूप से वस्तुओं को इसप्रकार उज्वल करता है जिसप्रकार आपका शुभ्र कीर्ति-पुन वस्तुओं को उज्वल कर रहा है।
भावार्ध-शाखकारों ने समस्त बों में श्वेनवर्ण को प्रधान माना है, अतः यह इन्द्र के उत्रावा' नाम के सर्वश्रेष्ठ घोड़ेरत्न के समान शुभ्र है, इसलिए वह आपकी शुभ्र यशोराशि-सरीखा बस्तुओं को शुभ कर रहा है। हे राजन् ! उसके रोम उसप्रकार सूक्ष्मदर्शन-शाली ( स्पष्ट दिखाई न देनेवाले ) है जिसप्रकार आपका चित्त सूक्ष्मदर्शन-शाली (सूक्ष्म पदार्थों को देखने व जाननेवाला) है। हे स्वामिन् ! जिसप्रकार आपके शत्रुओं का कुल-वंश-आपके प्रतापके कारण भग्नवंश ( नष्ट ) होधुका है उसीप्रकार उसका पृष्ठप्रदेश ( बैठने योग्य पीठ का स्थान ) भी मग्मवंश ( दिखाई न देनेवाले स्थल-युक्त) है। अर्थात्-पिशेष पुष्ट होने के कारण उसके पीठ के स्थान का स्थल दिखाई नहीं देता। हे देव ! जिसप्रकार आपकी वीर लक्ष्मी का श्वेत क्रीड़ा-चभर मनोहर होता है उसीप्रकार उसकी पूँछ भी मनोहर है ! हे राजन् । जिसप्रकार श्रापकी कीर्तिरूपी कुलदेवता का श्वेत केशपाश रमणीक है उसीप्रकार उसकी केसर (स्कन्ध-वेश के केशों की शुभ्र झालर ) भी रमणीक है। हे वेव ! जिसप्रकार आपका प्रताप (सैनिक व खजाने की शक्ति) विशाल ( विस्तृत ) है उसीप्रकार उसका मस्तक, पीठ का भाग, जघन (फमर का अप्रभाग), हृदयस्थल
और त्रिक (पृष्ठ-पीठ के नीचे का भाग) भी विशाल (विस्तृत) है। हे स्वामिन् ! जिसप्रकार मयूर के कएठ का विस्तार (भाकार ) चित्त को आनन्दित करता है उसीप्रकार उसकी गर्दन भी चित्त को आनन्दित करती हैं। हेदेव ! जिसप्रकार हाथी के गण्डस्थल का अर्धभाग शुभ या प्रधान होता है उसीप्रकार उसका मस्तक भी शुभ था प्रधान है। हे देव ! जिसप्रकार वटवृक्ष और पाकरवृक्ष के उद्वेलित (सिकुडे हुए) पत्र-पृष्ठभाग मनोहर होते हैं उसीप्रकार उसके दोनों कर्ण मनोहर है। हे देव ! उसके हनु (चिबुक---कपोनों के नीचे का भाग-ठोढ़ी), जानु, जङ्का (पीडी-जानुओं के नीचे के भाग), मुख प नासिका का स्थान मांस-रहित है, इससे पह ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-पुक्त स्थान काँटों से विदीर्ण किये गये है, इसीलिए ही उनमें मांस नहीं है। हे स्वामिन ! उसके दोनों नेत्र विशेष प्रकाश शाली (अत्यधिक तेजस्वीचमकीले) होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते हैं-मानों-स्फटिक मणियों द्वारा ही रचे गये है।
* कोटाक्तिपाठः सर्टि- (क., स., ग) प्रतिषु नास्ति । १. तथा चोक्तम्-श्वेतः प्रधानो वर्णमाम्' इति वचनात् । यतः इन्द्रस्य भय उच्चैःश्रवाः श्वेतवर्षों भवति ।
संस्कृत टीका पू. ३०८ से संकलित-सम्पादक