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________________ १०६ यशस्तिमकपम्पूकाव्ये - बहिस मार्गभूमिनु निसगांदोमनुष्यमनीवितसमसंपाविमः सकलोकोपसेवमानसंपत्रिः पाणिपत्यापितस्पतियोचिदिसापसामामपि संपादितसामैत्रीमनोभिरपहसितसुरकाननानोकोवनदेवीदानमापचाभिस्तलमिः, 1 भनेनीरचरनिनिकलापचापप्रकलानिलाम्दोलितपाखिन्दीसंततिमिरविरविकासोल्लासस्वरूपहारकैरबारविन्दमकरन्पवि. स्पन्दसंदोहामोवसंमिताभपुष्पैक्चामनासीविनोदलहस्तोरारहवहारिभिर्विचरितारतप्रतिदिवसेंदि विजदेवार्चनोपयोगभागिमिर्जदेवापानिनः सरप्रदेश, मधुममधुपानवशकोशकोशकावरलिजक्कासवासरामपरिमलोस्लासिभिलेखमुख्पवैखानस. जसमापयोधिURUITA-मिडम्पिाखापखवयसवोत्पचिमिविसकरपरकीसटिसमपैः पाकिसलवाकअम्बितप्रसूनमधीलग्निसन्सविसबसविसंवरनेवाप्रवाः, जिस भवन्ति देश में प्रजाजनों की वृद्धिंगत भी ऐसी खमियाँ ( शोभाएँ) केवल अपने अपने स्थानों पर उसप्रनार सिंगल होरही थी, जिसप्रकार कुमारी कन्याएँ नवीन कर प्राप्त करने के पूर्व केवल अपने-अपने स्थानों (मावा-पिता के गृहों) पर वृद्धिंगत होती-पदवी रहती है। जिन्होंने (लक्ष्मियों ने) नगर के वाह्य प्रदेशों की मार्ग-भूमियों पर वर्तमान ऐसे वृक्षों, तालावों, विस्मृत लता-समूहों और दूसरे ऐसे बनमेणियों के वृक्षों द्वारा मतिथियों के मनोरथ पूर्ण किये थे। कैसे हैं के वृक्ष ? जिमकी लक्ष्मी ( पत्तों, कोपलों, पुष्प च फलादि रूप शोभा) स्वभावतः समस्त मानवों के मनोरथों सरीखी (अनुकूल ) उत्पन हुई थी। अर्थात्-जो स्वभावतः अपनी पुष्प-फलादि रूप लक्ष्मी द्वारा समस्त मानवों के मनोरथ पूर्ण करते हैं। जिनकी पुष्प, फल व छायादि रूप लक्ष्मी प्रावण श्रादि से लेकर चाण्डालादि पर्यन्त समस्त मानवों द्वारा आस्वादन ( सेवन ) की जारही थी। फलों मासेमके रहने के कारण जिन्होंने मनुष्यों के हस्त-कमलों पर फलों के गमले समर्पित किये। जिन्होंने स्वर्गलोक सम्बन्धी मुनियों के चित्तों में भी दानमंडप -सदावर्त के स्नेह को उत्पन्न किया है। जिन्होंने अपनी लक्ष्मी द्वारा कोलोक सम्बन्धी वनों ( नन्दनवन-आदि) के कल्पवृक्ष तिरस्कृत (लजित ) किये हैं और जो वनदेवी की सताशाला ( सदावर्त स्थान ) सरीखे मनोक्ष प्रवीत होते थे। कैसे है वासाष स्थान ? जिन्होंने ऐसी प्रचण्ड वायु द्वारा, जो बहुत से जलचर पक्षियों ( इंस, सारस व चक्रवाआदि) की श्रेणी की पंचलवा से उसम हुई थी, तरज-पंक्तियाँ कम्पित की हैं। जिनके जल प्रचुरतर विकास से उक्षसनशील कुवलय (पन्द्र विकासी कमल). लालकमल, कुमुद ष श्वेत कम की मकरन्द ( पुष्परस } बिन्दुओं के क्षरण-( गिरने) समूह की सुगन्धि से मिश्रित थे। जो चंचल कमलिनी के पत्तोंरूपी झयों के उठाने से [छाया करने के कारण ] अत्यन्त मनोहर प्रतीत होते थे। जिनके द्वारा वर्षा ऋतु के बिन तिरस्कृत किये गए थे। क्षीरसागर-सी उज्वल जलराशि से भरे हुए होने के फलस्वरूप जो स्वर्ग के इन्द्रों की अईम्व-पूजन के कार्य का आश्रय करणशील थे एवं जो अलदेवियों की प्याज सरीखे थे। कैसे सवामरहप? जो अवरों के पुष्परस-पान रूप मद्यपान के अधीन कमलों के मध्यभागलप । सराफात्रों से मरण होती हई केसरों की भय की विशेष सुगन्धि से उल्लसनशील (अतिशय शोभायमान) होरहे थे। जो देवर्षियों द्वारा किये हुए पुष्प-पुण्टन (चोड़ना) के योग्य थे। अर्थात्-देवषिगण भी। जिन सवाओं से फूलों का संचय करते थे। जिन्होंने ऐसे मनोज पुष्पों द्वारा, साहब ( देवोपान ) की पुष्पोत्पत्ति विरकत की थी, जो इन्द्र संबंधी मस्तक के समभाग के प्रशस्त आभूषण थे। जिन्होंने (लतामण्डपों ने) कल्पवृक्ष की लगों की रचना का अवसर तिरस्कृत किया था। जिन्होंने कर (हाथ) सरीखे कोमल पचों पर पुष्पमञ्जरी की मालाएँ धारण की थीं और जो वसन्तरूप राजा के कीड़ा सरीखे थे।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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