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________________ ܐ ܕ द्वितीय आश्वास बन सर्वाः कान्ताः कुट्टिमभूमयः । हंबै: एससीव सुदुगदभाषिभिः ॥ ५ ॥ प्रजाप्रकम्प्सस्यायाः सर्वदा या भूमयः । मुध्यन्ती शामरावासकल्पमुमवन भियम् । ६ ॥ निस्थं कृतातिथेयेन थेनुकेम सुधारयैः । पत्राक्रियन्त देवानामपार्याः कामयेनवः ॥ ७ ॥ विभ्रमल्लासमयं वीनां विलोकितैः । हसा न बहु सभ्यते घुसवोऽनिमिषाङ्गाः ॥ ८ ॥ जीवित कीये यत्र दशनाम विणम्हः । वपुः परोपकाराम धर्माय गृहमामम् ॥ ९ ॥ ari विद्यागमैत्र यौवनं गुरूसेच्या सर्वसङ्गपरित्यागैः संग पर वयः ॥ १० ॥ द्वावेव च जनौ यत्र बसतो वसतिं प्रति । अर्थिम्यवाङ्मुखो यो न युद्ध यो न परामुखः ॥ ११ १०५ fresकार प्रफुलित कमलों से व्याप्त हुए तालाब कोमन व अस्पष्ट वाणी बोलनेवाले राजहंसों से मनोहर प्रवीत होते हैं उसीप्रकार प्रस्तुत अवन्ति देश की कृत्रिम भूमियाँ भी कोमल a weपष्ट वाणी बोलनेवाले जमीन पर गिरते हुए मन करनेवाले सुन्दर यों से मनोहर प्रतीत होती थीं ' ॥ ५ ॥ जिसकी भूमियाँ ( खेत ) सदा प्रजाजनों की मनचाही यथेष्ट धान्य- सम्पत्ति से परिपूर्ण थीं, इसलिए ऐसी मालूम होती थी मानों वे स्वर्गलोक संबंधी कल्पवृक्षों के उपवन की लक्ष्मी चुरा रही हैं ॥ ६ ॥ अमृत सरीखे मधुर दुग्धपूर से सदा अतिथि सत्कार करनेवाले जिस अन्ति देश की सद्यः प्रसूत ( तस्काल में व्याई हुई ) गायों के समूह द्वारा जहाँपर देवताओं की कामतुएँ निरर्थक कर दीगई थीं ॥ ७ ॥ जहाँपर भ्रुकुटि दक्षेपों ( कटाक्ष - विक्षेपों) द्वारा सुन्दर प्रतीक्ष होनेवाली गोपियों की विलासपूर्ण तिरी चितवनों से मोहित हुए ( उल्लास को प्राप्त हुए) देवता लोग अपनी अप्सराओं (देषियों ) को विशेष सुन्दर नहीं मानते थे; क्योंकि उन्हें अपनी देवियों के निश्चल नेत्र मनोहर प्रतीत नहीं होते थे" || ८ ॥ जहाँपर जनता का जीवन कीर्तिसंचय के लिए और लक्ष्मी-संचय पात्रदान के हेतु एवं शरीरधारण परोपकार- निमित्त तथा गृहस्थ जीवन दान-पूजादि धर्म प्राप्त करने के लिए था ॥ ६ ॥ जहाँपर प्रजाजनों का वाल्यक ( कुमारकाल ) विद्याभ्यास से मलत था व युवावस्था गुरुजनों की उपासना से विभूषित थी एवं वृद्धावस्था समस्त परियों का त्याग पूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा के धारण से सुशोभित होती थी ।। १० ।। जिसे अवन्ती देश में प्रत्येक गृह में दो प्रकार के मनुष्य ही निवास करते थे। १–ओ उदार होने के फलस्वरूप याचकों से विमुख नहीं होते थे। अर्थात् उन्हें यथेष्ट दान देते थे और २ - जो वीर होने के कारण कभी युद्ध से परामुख ( पीठ फेरनेवाले ) नहीं होते थे । अर्थात् - युद्ध भूमि में शत्रुओं से युद्ध करने तैयार रहते थे। निष्कर्ष -- जिसमें दानवीर व युद्धवीर मनुष्य थे ।। ११ ।। १. उपमालङ्कार । २ हेतु अलङ्कार । ३. हेदूपमालङ्कार । ४. हेतूपमालंकार । ५. दीपकाकार । * बाल्यं विद्यागमैर्यश्रेत्यनेन 'शैशवेऽभ्यस्त विधानामित्येकमितिचे 'वाम्बे विद्याणामर्थान् कुर्यात्कार्म यौवने, स्म विरे धर्म मोक्षं चेति वात्स्यायनोकिमस्य कवेरन्यस्य चानुसरतः कस्यचिदपि दोषस्याभावात्तदुकं 'मिष्यन्दः सर्वशास्त्राणा यत्काभ्यं तत्र दोषभाक्' लोकोकिमन्यशाओक्तिम चिस्येम ब्रुवन् कविः ॥ १ ॥ लोकमार्गानुगं किंचिक्किचिच्छानुर्ग । उत्पा किंचित्कवित्वं त्रिविधं वे ॥२॥ इति ६० लि० सर्टि० प्रति (क) से संकलित - सम्पादक । ६. दीपकालंकर, 1 ● अतिचालंकार । १४
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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