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________________ १०४ पशस्तितकचम्पूचम्ये या नासोकपतिमानसराहसी विवाधीस्वरविचारविहारदेवी । मत्याधिपचवणभूषणरत्नाहो सा व श्रियं वितस्ताविनगारपसूतिः ॥ २ ॥ महोबास्त्रप्रासादप्रकाशनकीर्तिकृत देवतामहः महामुमावतोपलासारसटिसदितालिकासम्पाल धर्मावलोकमहीराव परिप्रासमस्ततामोशेणांविनिर्णय, समाकळ्य-अस्ति सल्बिहेव क्ट्सएडमण्डलीविभागविचित्रे भरतक्षेत्र प्रहसिप्तधमुवसतिकाम्सोजन्ता नाम निखिललोकाभिशापविलासिबस्तुसंपत्तिनिरस्तसुरपाइपमढ़ो जनपदः । मिया महाणि श्रीदनिनान्यभ्युपपरिभिः । यत्र मैसर्गिको प्रीति भवन्ति सुकूतात्मनाम् ॥ ३ ॥ सबसे पत्र मेहानि खेउत्तईकमण्डवैः । पेशासकुलानीव कझोलेः झीरवारिधेः ॥ ४ ॥ यह जगप्रसिद्ध ऐसी जैनभारती-द्वादशाङ्गवाणी-आप लोगों के लिए स्वर्गश्री व मुक्तिलक्ष्मी प्रदान करे । जो देवेन्द्रों के मनरूप मानसरोवर में विहार करनेवाली राजहँसी है। अर्थात्जिसप्रकार राजहंसी मानसरोवर में यथेष्ट क्रीड़ा करती है उसीप्रकार यह जैनभारती भक्तों को स्वर्ग र इन्द्र-पद प्रदान करती हुई उनके मनरूप मानसरोवर में यथेष्ट क्रीड़ा करती है। जो विद्याधर-राजाभों और गणधरदेवों के विचारों की गृहदेषता है। अर्थात्-जिसके प्रसाद से भक्त पुरुष, विद्याधरों के स्वामी व गगधरदेच होते हुए जिसकी गृहदेवता के समान उपासना करते हैं एवं जो भरत चक्रवर्ती से लेकर श्रेणिक राजा पर्यन्त समस्त राज-समूह के कानों को सुशोभित करने के लिए रल-जड़ित सुषर्णमयी कर्णकुण्ठल है। भावार्थ-जिस द्वादशाङ्ग वाणी के प्रसाद से भक्तपुरुष स्वर्गलक्ष्मी विद्याधर राजाओं की षिभूति और भूमिगोचरी राजाओं की राज्यलक्ष्मी प्राप्त करते हुए मुक्तिलक्ष्मी के अनौखे वर होते है। ऐसी वह द्वादशान-वाणी आप लोगों को स्वर्गश्री व मुक्तिलक्ष्मी प्रदान करे ॥२॥ उक्त क्षुल्लक युगल में से सर्वश्री अभयरुचि क्षुल्लक ने मारिदत्त राजा से कहा-हे राजन् ! आपकी कीर्विरूपी कुल-देवता तीनलोक रूप मइल को प्रकाशित करती है, इसलिये आप लोगों के सम्माननीय है। मापने महाप्रभाररूपी पाषाणों की वेगशाली वर्षा द्वाय कलिकालरूपी दुष्ट हाथी अथवा काले साँप को गिरा दिया है। आप धर्मरक्षा में तत्पर होते हुए समस्त शाख-महासमुद्र का निश्चय करनेवाले है, अतः हे मारिदत्त महाराज ! आप हम लोगों का देश, कुल व दीक्षा-प्रण का वृत्तान्त ध्यान पूर्वक सुनिए खण्डों के देश-षभागों से आश्चर्यजनक इसी जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में पेसा ... 'अन्ति' नाम का देश है, जिसने अपनी मनोज्ञ कान्ति ( शोभा ) द्वारा वालोक की कान्ति तिरस्कृतलनित की है एवं जिसमें समस्त लोगों को अभिलषित वस्तुएँ प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरूप जिसने । कल्पवृक्षों का अहङ्कार तिरस्कृत कर दिया है। जिस अचन्ति देश में पुण्यवान् पुरुषों के गृह धनादि लक्ष्मी के साथ और लक्ष्मी पात्रदान के साय एवं पात्रदान सन्मानादि विधि के साथ स्वाभाविक स्नेह प्राप्त करते हैं ॥३॥ जिस प्रकार क्षीरसमुद्र के तटवर्ती पर्वतों के समूह, उसकी तरकों से सुशोभित होते हैं, उसीप्रकार वहाँ के गृह भी कीड़ा करते हुए बछड़ों के समूहों से शोभायमान होते थे ।।४।। १. रूपालबार । २. उपमालंकार। टिप्पणीकार-विमर्श-श्रिया गृहाणि श्रीदनिः' इत्यत्र पंचमाक्षरस्य गुरुत्वं न साधुः पंचमं लघु सर्वत्रेतिवचनाच 'प्रदक्षिणार्चिव्याजेन स्वयमेव स्वयं ददो। तया भ्रमो च भग्नेन तथाप्यदुष्प्रत्यास्ति में भवं ॥ १ ॥ इत्यादि महाधीका प्रयोगदर्शनान् । सटि. (क: से संकलित–सम्पादक । २. दीपकालबार । ४. उपमालद्वार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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