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द्वितीय आश्वास श्रीकान्याकुचकुम्भविभ्रमधरव्यापारकपत्रुमाः स्वर्गस्त्रीजनलोबमोत्पलधनाक्रीतार्थागमाः।
जन्मापूविभूतिवीक्षणपथप्रस्थानसिद्धाशिवः पुष वासुमनसो मतानि जगमः स्यावाविवादविषः ॥ १॥ स्याद्वादी (स्यादस्ति' व स्यामास्ति-आदि सात भङ्गों-धर्मों-का प्रत्येक वस्तु में निरूपण करनेवाले अर्थात्-अनेक धर्मात्मक जीव-आदि सात तत्वों के यथार्थवक्ता-मोक्षमार्ग के नेता-वीतराग य सर्व ऋषभदेवप्रावि तीर्थक्कर) द्वारा निरूपण की हुई द्वादशाङ्ग शास्त्र की ऐसीं वाणियाँ, तीनलोक में स्थित भव्य प्राणियों के मनरयों ( स्वर्गश्री व मुक्तिलक्ष्मी की कामनाओं की पूर्ति करें। जो चक्रवर्ती की लक्ष्मीरूपी कमनीय कामिनी के कुचकलशों की प्राप्ति होने से शोभायमान होनेवाले भन्यप्राणियों के मनोरथों की उसप्रकार पूर्ति करती है जिसप्रकार कल्पवृक्ष प्राणियों के समस्त मनोरथों-इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। अर्थात्जो जैन-भारती चक्रवर्ती की विभूतिरूप रमणीक रमणी के कुचकलशों से फ्रीड़ा करने की भव्यप्राणियों की इच्छा-पूर्ति करने के लिए कल्पवृक्ष के समान है। इसीप्रकार जो, स्वर्ग को देषियों के नेत्ररूप कुषलयोंचन्द्रधिकासी कमलों के धन में भक्त पुरुषों का विहार कराने में समर्थ हैं, इसलिए जिनकी प्राप्ति सफल (सार्थक) अथवा कैलिकरण निमित्त है। अदाल-जिस जानकारती के प्रसाद से विद्वान् भक्तों को स्वर्ग की इन्द्र-लक्ष्मी प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरूप उन्हें वहाँपर देवियों के नेत्ररूपी चन्द्रषिकासी कमलो के क्नों में यथेष्ट क्रीड़ा करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। एयं जो संसार में प्राप्त होनेवाली सर्वोत्कृष्ट भुक्ति लक्ष्मी के निरीक्षण-मार्ग में किये जानेवाले प्रस्थान के प्रारम्भ में उसप्रकार मानलिक निमित्त (कारण) हैं, जिसपकार सिद्धचक्र-पूजा संबंधी पुष्पाक्षतों की आशिष-समूह, स्वर्गश्री के निरीक्षण-मार्ग में किये जानेवाले प्रस्थान के प्रारंभ में माङ्गलिक निमित्त है। अर्थात्-जिस जैन-भारती के प्रसाद से विद्वाम् भक्त पुरुष को सर्वोत्कृष्ट मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति होती है, क्योंकि मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति के उपायों ( सम्यग्दर्शनशानधारित्र) में जैनभारती के अभ्यास से उत्पन्न होनेवाला सम्यग्ज्ञान प्रधान है, क्योंकि 'ऋते भानान्न मुक्तिः अर्थात्-पिना सम्यग्ज्ञान के मुक्ति नहीं होसकती ||१||
* स्यादवादविषः। स.। १. सर्वपानियमत्याः यथादृष्टमयेक्षकः । स्थाच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ १॥ हरस्वयंभूस्तोत्र से । अर्थात्-ऐसा स्यात्' ( किसी अपेक्षा से ) शब्द, जो वस्तुतत्व के सर्वथा एकान्तरूप से प्रतिपादन के नियम को निराकरण करता है और प्रमाण-सिद्ध वस्तुतत्य का कपन अपेक्षाओं (विविध घटिकोषों) से करता है, भापके अनेकान्तवादी अईदर्शन में ही पाया जाता है. वह ('स्यात्' शब्द) आपके सिवाय दुसरे एकान्तपादियों ( बौदादिकों ) के दर्शन में नहीं है, क्योंकि वे मोक्षोपयोगी आत्मतत्व के सही स्वरूप से अनभिज्ञ है ॥ १ ॥
तथा चोक्तम्--भारत्या व्यवसाये व जिगीषायां रुचौ तथा। शोभायां पञ्चसु प्राहुः वियनि पूर्वसूरयः । सू. टी.से संकलित--सम्पादक
२. रूपकालार। • उक्तश्लोक में बनभारती के प्रसाद से चक्रवर्ती की विभूति की प्राप्ति, इन्द्रलक्ष्मी का समागम और मुक्तिश्री की प्राप्ति का निर्देश किया गया है। अतः उक निरूपण से यह समझना चाहिए कि जैनभारती के प्रसाद से निम्रप्रकार सप्त परमस्थानों की प्राप्ति होती है। तथा च भगवजिनसेनाचार्य :--'सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिमण्य सुरेन्द्रता । साम्राज्य परमाईत्म निर्वाणं चेति सप्ता' ॥१॥