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यशस्तिलक चम्पूकाठचे
मुविकुमार-वाम्बर दीक्षान्मुनीनां संकीर्तन रात्रिसदस्य युक्तम् । तथापि तत्कर्तु पचिष्ये भवन्ति भव्येषु हि ध्यानम्पोवित्पास्वामसमः स्कारस्फुर स्केवानाम्भोधिवरेकदेश विशसस्त्रैलोक्यवेडावलः ।
।। २१८ ।।
आशिमण्डन भवत्पादवान्मोक्षः श्रीनाथ प्रथितान्ययस्य भवतो भूपाजिनः श्रेयसे ॥ २१९ ॥ सोऽयमाशादितक्सा महेन्द्रामरमान्यधीः । देवाने संतसानभ्यं वस्वनी जिनाधिपः ॥ २२० ॥ इति कतार्किकलोक हामणेः भीम मिदेव भगवतः शिष्येण सद्योऽनवद्यगद्यपद्यविद्याधर चक्रवर्तिशिखण्डनीरमन श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराज परि यशस्तिलकापरनाति महाकाव्ये कथाबतारो नाम प्रथम
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उक्त प्रश्नों को सुनकर मुनि कुमार ( अभयरूचि क्षुल्लक ) ने कहा- साधु पुरुषों को दीक्षा ग्रहण के सिवाय दूसरे देश व वंश का कथन करना उचित नहीं है तथापि मैं ( अभयरुचि क्षुल्लक, जो कि पूर्वभव में यशस्तिलक अथवा यशोधर राजा था ), उक्त तीनों बातों का कथन करने में प्रयत्न करूँगा। क्योंकि मुक्ति लक्ष्मी की प्राप्ति की योग्यताशाली भव्यपुरुषों के प्रति शिष्ट पुरुषों का अनुराग होना स्वाभाविक है' ।। २१६ ।। हे लक्ष्मीपति मारिदत्त महाराज ! श्रीभगवान् भहन्त सर्व ऋषभादि तीर्थकर, जिन्होंने शुक्लष्यान रूपी तेज द्वारा अन्धकार-समूह (ज्ञानावरण- आदि घातिया कर्मों की ४५ प्रकृतियाँ और नामकर्म की १६ प्रकृतियाँ इसप्रकार सब मिलाकर ६३ कर्म-प्रकृति रूप अन्धकार समूह) को समूल नष्ट किया है और जिनका तीनलोक रूपी वेला पर्वत ( समुद्र तटवर्ती पर्वत ) लोकालोक को प्रचुरता से व्यास करनेवाले ( जाननेवाले) और योगियों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करनेवाले केवलज्ञान रूप समुद्र के तट के एक पार्श्वभाग में शोभायमान हो रहा है । एवं जिसके चरण-कमल नमस्कार करते हुए इन्द्रों के मस्तकों के आभूषण हैं, विख्यात हरिवंश में उत्पन्न हुए आपका सदा कल्याण करने में समर्थ हो । २१९ ॥ [ सोऽयमाशार्पितयशा ] वह जगत प्रसिद्ध प्रत्यक्षीभूत जिनेन्द्र भगवाम जिसका शुभ्र यश दशों दिशाओं में व्याप्त है एवं [ महेन्द्रामरमान्यधीः ] जिसकी केवल ज्ञानरूपी भुद्धि समस्त राजाओं व देषों द्वारा पूजी गई है, [ देयाते संततानन्वं ] आप के लिए निरन्तर अनन्त सुख देनेवाली ( वस्त्वभीष्टं जिनाधिपः ) अभिलषित वस्तु ( मुक्ति लक्ष्मी ) प्रदान करें ||२२|||इसप्रकार समस्य तार्किक (षड्दर्शन - वेत्ता ) चक्रवर्तियों के चूडामणि ( शिरोरन या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य श्रीमत्सोमदेवसूरि द्वारा, जिसके चरण-कमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्यविद्याधरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरचरित' में, जिसका दूसरा नाम 'यशास्तिलकचम्पू महाकाव्य' है, 'कथावतार' नामका प्रथम आश्वास ( सर्ग ) पूर्ण हुचा ।
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इसप्रकार दार्शनिक चूडामणि श्रीमदम्बादासजी शास्त्री व श्रीमत्पूष्य आध्यात्मिक सम्त भी १०५ लुक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनम्या यतीर्थ, काव्यतीर्थं व आयुर्वेव विशारद एवं महोपदेशक आदि अनेक उपाधि-विभूषित सांगरनिवासी श्रीमत्सुन्दरलालजी शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित यशास्लिकचम्पू महाकाव्य की 'यशस्तिलक- दीपिका' नाम की भाषा टीका में 'कथावतार' नामका प्रथम आश्वास ( सर्ग) पूर्ण हुआ ।
१. अर्थान्तरन्यासालंकार । २. रूपक व अतिश बालंकार । ३. काव्य-सौन्दर्य अतिशयालंकार एवं इस ठीक के चारों चरणों का शुरू का एक एक अक्षर मिलाने से 'सोमदेव' नाम बन जाता है। अतः प्रस्तुत अन्यकार आचार्य श्री मैं अपना अमर नाम अहित किया है—सम्पादक