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________________ प्रथम श्राश्वास त्रयेशिलतानि वषिषु, भावर्तविभ्रमं नाभिदेशयोग, पृथुस्त्वं नितम्बदेशे, वृत्तगुणनिर्माणमुरुषु, मुक्ताफलप्रसूति रणनखेषु, शावायरसनिर्भरतवं चास्य मिथुनस्य तनो, अमेन मुजा प्रजापतिमा नून सपरिवारः पारावार पर्व पर दारिद्रयमानिन्थे । भपि च । यत्रामसेन समजन्म विभाति विश्व, पोन्नुना सह रसिं भजतेमामीः । छावण्यमेव मधुरत्वमुपैति यत्र सहदे किमिव स्पमर्य नमोऽस्य ॥ २१५ ॥ इति क्षणं च प्रत्रिचिन्स्य भूपः सप्रमय तन्मिधुम भाषे । को नासो न का कुलं पत्र भूव जन्म ॥ २१ ॥ मज्ञातसंसारमुखं च बाल्ये जातं कुतः प्रव्रजनाय चेतः । एतम्मम प्रार्थनतोऽभिधेय सन्तो हि साधुष्वनुकूलवाचः ।। २१॥ पड़ता है मानो-ब्रह्मा ने उनमें हृदय स्थल के मिष से लक्ष्मी का मनंदर ही उत्पन्न किया है। इसकी उदररेखाएँ ऐसी मालूम पड़ रही हैं-मानों-ब्रह्मा वारा उत्पन्न किये हुए वेत्रों के कम्पन ही हैं। इसके नाभिदेश की गम्भीरता देखकर ऐसा प्रतीत होता है-मानों-प्रजापति ने नाभि के बहाने से उसमें जल में भैयर पड़ने की शोभा उत्पन्न करके समुद्र का भाग्य फोड़ दिया। इसके नितम्ब ( कमर के पीछे के भाग) देखकर ऐसा जान पड़ता है-मानों-ब्रह्मा ने उनमें विस्तीर्णता उत्पन्न करते हुए समुद्र को सपरिवार वरिद्र कर दिया। इसके गोल ऊरु (निरोहों) को देखकर ऐसा प्रतीत होता है-मानों-विधि ने उनमें वर्तुल (गोलाकार ) गुण की रचना करते हुए समुद्र को दरिद्र कर दिया। इसके मोतियों-सरीखे कान्तिशाली चरण-दरख देखकर ऐसा खात होता है--मानों-अल्मा ने उनमें मोतियों की राशि उत्पन्न करते हुए समुद्र का भाग्य फोड़ दिया । इस युगल का सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर देख कर ऐसा मालूम पड़ता है मानों-इसका शरीर कान्तिरस से ओत-प्रोत भरते हुए ब्रह्मा ने समुद्र को अन्य समुद्रों के साथ विशेष दरिद्र (कान्ति-हीन ) बना दिया। इस मुनिकुमार-युगल-खुल्लकजोड़े-के अनौखे सौन्दर्य का वर्णन कषि फिसप्रकार कर सकता है? अथवा किसके साथ इसकी तुलना कर सकता है ? जिस अनौखे सौन्दर्य में इसका घरण से लेकर मस्तक पर्यन्त साप शरीर अमृत के साथ उत्पन्न हुआ शोभायमान होरहा है। अर्थात्-जिसका समस्त शरीर अमृत-सरीखा उज्वल कान्तिशाली है। जिसमें कमल लक्ष्मी (शोभा) चन्द्रमा के साथ अनुराग प्रकट कर रही है-संतुष्ट होरही है। अर्थात्-इसके नेत्र-युगल नीलकमल-सरीखे और मुख चन्द्रमा-सा है एवं जिसमें सौन्दर्य मधुरता के साथ वर्तमान है। अथवा जहाँपर नमक भी मीठा हो गया है। अर्थात्-जहाँ पर प्राप्त होकर खारी वस्तु अमृत-सी मिष्ट होजाती है ॥२१५॥ तत्पश्चात् उसने (मारिवत्त राजा ने) उत्तप्रकार क्षणभर भलीप्रकार विचार करके प्रस्तुत मुनिकुमार-युगल (क्षुल्लकोदे) से विनयपूर्वक कहा-आपकी जन्मभूमि किस देश में है.? एवं किस वंश में आपका पषित्र जन्म हुमा है! और आपकी चित्तवृत्ति, सांसारिक सुखों का स्वाद न लेसी हुई बाल्यावस्था में ही ऐसी कठोर दीक्षा के ग्रहण करने में क्यों तत्पर हुई? मेरी विनीत प्रार्थना के कारण आपको मेरे उक्त तीनों प्रश्नों का उत्तर देना चाहिये। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी नीति है कि सजन पुरुष रमत्रय की आराधना करनेवाले साधु पुरुषों के साथ हितकारक व कोमल वचन बोलनेवाले होते है। ॥ २१६-२१७ ।। 1. उत्प्रेक्षालंकार । २. आक्षेप व उपमालंकार । ३. अर्थान्तरन्यासालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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