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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कि व नीलमणिसस्थाने कुन्सलेषु, शिशिरकरपरार्धतां भाजयोः, तर हारेक्शविल्लीपु, रत्नसमुच यं लोचनयुगलयोः, कौस्तुभास्पति कपालपु. अमृतधाराप्रवाइमालापषु, गम्भीर नामयोः, [ गम्भीरत्रमालापषु !, प्रवालपल्लयोल्लास रहनादयोः. मुधारसप्रभा स्मितिषु, प्रवेतःपाशाभवगविषये, कम्युकान्ति कण्ठयोः, वीचिविलसितानि वाहासू, लक्ष्मीविवानि करतलेषु, रमावेश्मशोभामुरःस्थलयोः,
विशेषता यह है कि इस क्षुटक-युगल की अनोखी सर्वाङ्ग-सुन्दरता देखकर ऐसा प्रतीत होता हैमानों-इसके निर्माता प्रत्यक्षीभूत ब्रह्मा ने समुद्र को पारिवार सहित ( अन्य समुद्रों के साथ) विशेषरूप से दरिद्र (निर्धन ) अना दिया है। उदाहरणार्थ-- इसके नीलमणि-सरीखे कान्तिशाली केश-समूह देखकर ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-ब्रह्मा ने उनमें केशों के बहाने से इन्दनील मणियों की किरणे या प्रकर उत्पन्न करते हुए समुद्र को अन्य समुद्रों के साथ विशेष दरिद्र ( मणि-हीन) बना दिया। इसके चन्द्रमेसे मनोज्ञ मस्तकों को देखकर ऐसा विदित होता है-मानों-ब्रह्मा ने उनमें मस्तकों के छल से चन्द्रमा की प्रधानता उत्पन्न करते हुए, समुद्र को विशेष रूप से दरिद्र-निर्धन ( चन्द्र-शून्य ) बना दिया है। इसकी जलतरज-सी चन्चल भोहें देखकर ऐसा ज्ञात होता है मानों प्रजापति ने उनमें झुकाटयों के मष से समुद्र का चश्नल तरङ्ग-पाक्त ही उत्पन्न की है और जिसके फलस्वरूप उसने समुद्र को सपारयार विशेष दरिद्र (वरज-हीन ) बना दिया है। माणिक्य-सरीखे मनोज्ञ प्रतीत होनेवाले इसके नेत्रों की ओर दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है-मानों-प्रजापाते (ब्रह्मा ने उनमें नेत्री के मिष से कृष्ण, नील व लाल रत्नों की राशि ही उत्पन्न की है और जिसके फलस्वरूप ही उसने समुद्र को परिवार सहित विशेष दरिद्र (रत्नराशि-शून्य । बना दिया। इसके चमकीले आतशय मनोज गालों को देखकर ऐसा जान पड़ता हैमानों ब्रह्मा ने कपल ( गाल । तलों के बहाने से उनमें कौस्तुभमाण को उत्पन्न करते हुए समुद्र को विशेष परिद ( कौस्तुभ मणि से शून्य ) बना डाला। इसके आवेशय मधुर स्वरों को सुनकर ऐसा जान पड़ता है-- मानों-प्रजापति-प्रया ने, स्वरों के मिष से इनमें अमृत धारा का प्रवाह ही प्रवाहित करते हुए समुद्र को अभ्य समुद्रों के साथ दरिद्र ( अमृत-शून्य ) बना दिया है। इसकी अतिशय मनोज्ञ नासिकाओं की ओर हाटपात करने पर ऐसा हात होता है-मानो-मासिकाओं के बहाने से इनमें गम्भीरता उत्पन्न करते हए ब्रह्मा ने समुद्र को सपारंवार दारे कर दिया। इसके अतिमनोझ लालीवाले ओंठ देखकर ऐसा मालूम पड़ता है-मानो-ब्रह्मा ने प्रोष्ठों के बहाने से इनमें मूंगा की कोपलें उत्पन्न करते हुए समुद्र को सपरिवार भाग्य-हीन बना डाला। इसकी मनोश मन्द मुसक्यान देखकर ऐसा मासूम पड़ता है-मानोंब्रह्मा ने इसके बहाने से ही इसमें अमृतरस की कान्ति भरते हुए समुद्र को दरिद्र ( अमृत-शून्य ) कर दिया। इसके मनोज्ञ कानों को देखकर ऐसा भान होता है-मानों-प्रझा ने इसके कानों में दिक्पाल के मायुध उत्पन्न करते हुए समुद्र को विशेष दरिद्र (आयुध-हीन) कर दिया। इसीप्रकार इसके शख सरीखें मनोज्ञ काठ देखकर ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-काठों के मिष से मझा ने इनमें दक्षिणावर्त शंख की शोभा उत्पन्न
मते हुए समुद्र का भाग फोड़ दिया। इसकी तरनों सरीखी चञ्चल भुजाएँ देखकर ऐसा प्रतीत होता है'मानों-उनमें ब्रह्माने सरङ्ग-शोभा उत्पन्न करते हुए समुद्र की दुर्दशा कर डाली-उसे तरज-हीन कर दिया। इसके सुन्दर इस्ततल देखकर ऐसा जान पड़ता है-मानों-ब्रह्माने उनमें लक्ष्मी के चिन्ह ही बनाए हैं, जिस के फलस्वरूप समुद्र को भाग्यहीन कर डाला। इसके लक्ष्मीगृह-सरीखे मनोज्ञ वृदय-स्थल देखकर ऐसा जान
1. कोष्टाइन पात्र ] संस्कृन टंका के प्राचार में नहीं होना चाहिए। क्योंकि उसे समन्वयपूर्वक पूर्ष गश्च में ।। प्रविष्ट कर दिया गया है-सम्पादक