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________________ प्रथम आवास पापीश्वर भूरमणीश्वर यदिदमलिगुण्य। उक्तं किचित्त्वत्स्तुतकृतिविधि न महोदय ॥ २१२ ॥ एता ॥ रिविरामन्दिर सुन्दरेन्द्र *श्रीराजन् मलैर्नरेवैः । स्टोऽसि दृष्टाः क्षिपि शितीशः कामैर्न केरुत्सवकारिभिस्ते ॥ २१३ ॥ इस्तागतैस्त्रिदिवलोकगमैस्तस्मान्तरालनिरतैश्च सपसजातैः । ९९ जगत्रयपुरीप्रथिने तदेह को नाम विक्रमपराक्रमवा निहास्तु ॥ २१४॥ सोऽपि राजा तयोरेवमभिनन्दतोचि वपुषि चानभ्यजनसाधारण मधुरतां निर्वर्ण्य 'स्वेदं करतलस्पर्शेनापि हासौकुमार्य वपुः क चायं वयःपरिणामकठोरोरपि महासत्राधिरोनियमका स्थारम्भस्तपः प्रारम्भः क्वेमानि पद निवेदन पशुमानि कल्लिपल्लवच्छषिषु करचरणतकेषु लक्षणानि क चायमादिव एवाजन्म भिक्षा कसम क्रमः प्रक्रमः । अहो आश्चर्यम् । कथमाभ्यामसत्यां नीतोऽयं निर्देशः । पृथ्वीरूपी स्त्री के स्वामी, समस्त गुणों के निवास स्थान और अद्भुत उदयशाली ऐसे हे राजाधिराज ! प्रकार हे जो तुम आपका गुणगान किया गया है, वह आपकी स्तुति करने में सही है । उक्त गुणगान श्रचर्यजनक नहीं है, क्योंकि आपके गुण इससे भी विशेष हैं ||२१२|| लक्ष्मी के निवास स्थान, इन्द्र- सरीखे मनोश और स्त्रियों के लिए कामदेव के समान विशेष प्रिय ऐसे हे राजन! जो राजा लोग आपकी शरण में आकर नत्रीभूत हुए हैं और जिन्होंने आपकी सेवा की है, उन्होंने आपके प्रसाद से कौन-कौन से ध्यानन्द जनक भोग प्राप्त नहीं किए ? सभी भोग प्राप्त किये * || २१३|| हे राजन् ! इसप्रकार आपके ऐसे शत्रु-समूहों से, जो कि बन्दीगृह में पड़े हुए हैं, जो स्वर्गवासी हो चुके हैं और जो भाग कर पतों की गुफाओं के मध्य भाग में स्थित है । अर्थात्-- जिन्होंने दीक्षा धारण कर पर्वतों और गुफाओं में स्थित होकर तपश्चर्या की है, आपकी शूरवीरता तीन लोकरूपी नगरी में विख्यात हो चुकी है तब इस संसार में आपको छोड़कर कौन पुरुष विक्रमवान और पराक्रमशाली ( सामर्थ्यशाली व उद्यमशाली ) है ? अपितु कोई भी विक्रमशाली और पराक्रमी नहीं है ।। २१४ ॥ उक्त प्रकार गुणगान करते हुए क्षुल्लक जोड़े की अनोखी शारीरिक सुन्दरता और वचनों की मधुरता देखकर मारिदत्त राजा ने भी निम्नप्रकार मन में विचार किया - "कहाँ तो इनका प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला अनौखा सुकोमलकान्त शरीर जिसकी स्वाभाविक कोमलता, हस्तल के स्पर्शमात्र से भी नष्ट होती है और कहाँ इनके द्वारा धारण की हुई ऐसी उम तपश्चर्या, जिसे युवावस्था के परिपाक से कठोर इन्द्रियोंषाले विशेषशक्तिशाली महापुरुष भी धारण नहीं कर सकते । इसीप्रकार कहाँ तो अशोकवृक्ष के किसलय- सरीखे इनके हाथ, पैर, और तलुने, जिनमें ड प्रथिवी के स्वामी (चक्रवर्ती) की राज्यविभूति के सूचक चिन्ह ि हुप दृष्टिगोचर होरहे हैं और कहाँ इनके द्वारा ऐसी कठोर साधना आरम्भ की गई है, जिसमें जन्म- पर्यन्त भिक्षावृति से जीवन-निर्वाह की परिपाटी पाई जाती है। अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है कि इन दोनों ने अपने शारीरिक शुभ चिन्हों द्वारा शुभ फल बतानेवाले सामुद्रिक शाक को किस प्रकार से असत्य प्रमाणित दिया ? H * औौराज इति क० । १. पत्ता छन्द, क्योंकि ६ मात्राओं से युक्त घत्ताछन्द होता है, कहींपर ६२ मात्राएँ भी होती हैं, इसके २७ भेद हैं। तथा चोतं पदं पाछन्दः । पत्तालक्षणं यथा क्वचिद्विषमित्राभिर्भवति । सप्तविंशतिभेदा पत्ता भवति । संस्कृत टीका पू. १०९ से समुल १. आक्षेपालङ्कार । ३. समुच्चय व भाक्षेपकार । ४. विमालंकार । पष्टिमात्रा मिता भवति । सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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