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________________ यशस्तिलकपम्पूचल्ये दिम्भिस्तम्माः सोभत्र पस्प बाताः प्रभास्सिपहा अपस्य । यस्ोत्यं तब महिमा महीन किसायं तस्य गुणैरहीन ।। ३०६॥ गनिजहीहि भोजावनीश चेदीश विमारमयशं प्रदेशम् । अरमन्तक पेश्म विहाय याहि पालय लघु लीरसमपहि ॥१०७॥ चोदेन अभिमुलय सिट पाण्य स्मपमुग्स इतप्रतिछ । वैरम पर्पट मलयोएकाठमागत नो वेत् पादपीठम् ।।२०८॥ सिस्य निभवितुमाशु सदसि सब तो देव वचसि । कयिते सति स क्षितिपः किमस्ति य: सेवाविधिधु न ते चकास्ति ॥२०॥ केरळमहिलामुखम्मस वडीयनिसाश्रवगावसंस । पोलखीकुचक्रब्बालविनोव पासवरमणीकृतविरहखेद ॥२१॥ अम्मरकान्तालक भानिस्त भरूयाङ्गमाङ्गनखदाननिरत । वनवासिनोविदीक्षगविमुग्ध कोट्युवति तत्रविदाध । कुरुवालललनाकुचसनुन कम्बोजपुरन्ध्रीसिककपत्र ॥११॥ परसिका । पादि द्वीप जो कि महाशक्तिशाली और विषम स्थान है, [अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से लकादि दीपों की रचना. जो कि दूरवर्ती है ] आपके समीपवर्ती गृह-सरीखे होरहे हैं और दिग्गजों के बन्धनस्तम्भ श्रापकी विजय के. जो कि लक्ष्मी से उन्नतिशील है, प्रशस्ति-पट्ट ( प्रसिद्धि सूचक पाषाणविशेष ) होचुके है' २.५-२-६।। "पृथिवी-पनि हे भोज! तुम व्यर्थ की गल-गर्जना (संप्राम-धीरता ) छोड़ो। हे चेदीश (कण्डिनपुर के अधिपति ) ! तुम पर्वत-संबंधी भूमि में प्रविष्ट होजाओ। हे अश्मन्तक ( सपादलक्षपर्वत के निवासी ) : तुम गृह छोड़कर प्रस्थान करो। हे पल्लव ( पश्चद्रामिल)! तुम क्रीडा-रस को शीघ्र छोड़ो। हे चोलेश । दक्षिणापथ में वर्तमान देश के स्वामी ) अथवा (गङ्गापुर के स्वामी)! तुम पूर्वसमुद्र का बलबन करके दूसरे किनारे पर जाकर स्थित होजाओ। प्रतिष्ठाहीन हे पाण्ड्य (दक्षिण देश के स्वामी ) ! तुम गर्व छोड़ो। हे वरम ( दक्षिणापथ के स्वामी)! तुम मलयाचल पर्वत के समीप भाग आओ। ऊपर कहे हुए आप सब लोग यदि ऐसा नहीं करना चाहते । अर्थात् सम्राट मारिदत्त द्वारा भेजे हुए उक्त संदेश का पालन नहीं करना चाहते तो शीघ्र ही मारिदत्त महाराज के सिंहासन की सेवा करने के लिए उसकी सभा में उपस्थित होजाओ"हे देव (राजन् ) ! अब आपके दूतों द्वारा उक्त प्रकार के षचन उक्त राजाओं की सभा में विशेषता के साथ कहे गए, तब क्या कोई राजा ऐसा है? जो आपके चरणकमलों की सेवाविधि में जाप्रत नहो? अर्थात्-समस्त राज-समूह आपकी सेवा में तत्पर है ॥२०७-२०६|| केरलदेश (अयोध्यापुरी का दक्षिणदिशावर्ती देश) की स्त्रियों के मुखकमलों को उसप्रकार विकसित ( उल्हासित ) करनेवाले जिसप्रकार सूर्य, कमलों को विकसित (प्रफुल्लित ) करता है। बीदेश (अयोध्या का पूर्यदिशा-वर्ती वेश ) की कमनीय कामिनियों के कानों को उसप्रकार विभूषित करनेपाले जिसप्रकार कर्णपूर ( कर्णाभूषण ) कानों को विभूषित करता है। चोलदेश ( अयोध्या की दक्षिण दिशा संबंधी देश) की रमणियों के कुच (स्तन) रूपी फूलों की अधखिली कलियों से क्रीड़ाकरनेवाले, पल्ल्यदेश (पञ्च द्वामिलदेश) की रमणियों के षियोग दुःख को उत्पन्न करनेवाले, कुम्सलदेश (पूर्वदेश) की सियों के केशों के विरलीकरण में तत्पर, मलयाचल की कमनीय कामिनियों के शरीर में नखक्षत करने में तत्पर, पर्वत संबंधी नगरों की रमणियों के दर्शन करने में विशेष उत्कण्ठित, कर्नाटक देशको त्रियों को फफ्ट के साथ आलिङ्गन करने में चतुर, हस्तिनापुर की सियों के कुच-कलशों को उसप्रकार आच्छादित करनेवाले जिसप्रकार कचुक ( अम्फर-आदि घन विशेष ) कुचकलशों को आच्छादित करता है, ऐसे हे राजन् ! आप काश्मीर देश की कमनीय कामिनियों के मस्तकों को कुचाम-तिलक रूप आभूषणों से विभूषित करते है॥२१०-२११५॥ मतभरत इति.। ।-टिप्पणी-नर्तने १. आज्ञेपालकार । २. आक्षेपालद्वार। ३. रूपकालंकार व पोकश ( १६) मात्राशाली पद्धतिका छन् ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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