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________________ प्रथम मावास लक्ष्मीरतिक्षोल प्रणविगह परकीति'वधूमहणाभिषङ्ग । यस्तय परमारीरतिनिवृत्तिमाख्याति यथार्थमसौ म पेन्ति ॥ २० ॥ बघ नासीरोद्धसरेणुरागमजस्किरणो* विरसिसभागः | आभाति पुर्पणममानयिम्बः क्षितिरमणीरतिनिधान । २०१॥ तब सेनाजनसेषिसताम् परिशुष्यद्वारिषु निम्नगासु । करिधावधरणिसमतोचितानि नूनं भवन्ति नृप विस्ततानि ॥२०॥ स्वस्कुलरहयरधभटभरेण सूर्णीकृतदुर्गपरम्परेण 1 रिपुविषयेष्वहितारण्यदाव दुर्गस्वमुमाप्रतिमास्थमेव ॥२०३॥ भक्तोऽम्युधिरोधःकामनेषु विविश्यव्याजपस्थितेषु । सैन्येपु विषतां पर्शनानि संमुखमापानित न गजितानि ॥२०४॥ गृहवाप्यः सलिलधयो मृचन्द्र कुलशैला: केलिमगा नरेन्द्र । लहादिद्वीपविधिः समर्थभूतः प्रतिषेशनिभः कृतार्थ ॥२०॥ भावार्थ-जिस प्रकार अङ्गार-आकर्षण-आदि उक्त बातें असम्भव य महाकष्ट-प्रद हैं उसीप्रकार महाप्रतापी मारिदत्त राजा से युद्ध की कामना करना भी असम्भव व कष्टदायक है।॥१९९॥ लक्ष्मी के साथ भोग करने में लम्पट, गङ्गादेषी नाम की पट्टरानी से विभूषित और शत्रुओं की कीर्तिरूपी वधू के स्वीकार करने में आसक्त ऐसे हे राजन् ! जो विद्वान्, तुम्हें परस्त्री के साथ रति-विलास करने से निवृत्त (त्यागी) कहता है, यह विद्वान् यथार्थ रहस्य नहीं जानता। क्योंकि आप निम्नप्रकार से परस्त्री के साथ रति विलास करने वाले हो । उदाहरणार्थश्राप लक्ष्मी ( श्रीनारायण की पत्नी ) का उपभोग करने में लम्पट हो और गङ्गा (शान्तनु की स्त्री और श्री महादेव की रखैली प्रिया) के साथ प्रेम करते हो। इसीप्रकार शत्रु कीर्तिरूपी वधू में भी आसक्त हो। ऐसी परिस्थिति में भी जो विद्वान आपको परस्त्री का भाई कहता है, वह यथार्थ रहस्य नहीं आनता' ।२०।। पृथ्वी-रूपी स्त्री के संभोग-मन्दिर ऐसे हे राजन् ! आपकी नासीर ( प्रमुखसेना) की. उछलती हुई धूलि के राग ( लालिमा ) के कारण डूबती हुई किरणों घाला सूर्य मलिन बिम्बशाली होता हुश्रा राँगे के दर्पण सरीखे मण्डलबाला होकर विद्वानों के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करता है ॥२०१॥ हे राजन ! जिनके वटों पर आपकी सेनाओं का समूह निवास कर रहा है और जिनकी जलराशि सूख गई है, ऐसी गङ्गा, - यमुना व सरयू-आदि नदियों के विस्तार निश्चय से हाथियों की दमन-भूमियों की समानता के योग्य होये हैं।।२२।। शत्रुरूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल अग्नि सरीखे हे राजन् ! आपके ऐसे सेना-समूह से, जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और सहसमट, लक्षभट, और कोदिभट पैदल योद्धा वीर पुरुष वर्तमान है, और जिसके द्वारा शत्रु देशों की दुर्गपरम्परा (किलाओं की श्रेणी) छिन्न-भिन्न ( चूर चूर ) कर दीगई है, शत्रु-देशों में दुगों ( किलो ) का नाम मात्र (चिन्हमात्र ) भी नहीं रहा, इसलिए भव तो उन ( शत्रु पेशों) में दुर्गत्व ( दुर्गादेवीपन प किलापन ) केवल पार्वती परमेश्वरी की मूर्ति में ही स्थित होगया है । २०३ ।। हे राजन् ! जब आपकी सेनाओं ने समुद्र के तटवर्सी वनों में दिग्विजय के बहाने से प्रस्थान किया तब उनके सामने, शत्रु द्वारा भेजे हुए उपहार (रत्न, रेशमी वसा, हाथी, घोड़े और स्त्रीरत्न-प्रापि उत्कृष्ट वस्तुओं की भेट ) प्राप्त हुए न कि शत्रुओं की गर्जना ध्वनियाँ प्राप्त हुई ।। २०४ ॥ मनुष्यों में पन्द्र, कृतकृत्य अथवा पुण्य संपादन करने का प्रयोजन रखने वाले, पृथिवी के स्वामी, उदारता, शौण्डीर्य (त्याग व विक्रम ), गाम्भीर्य व वीर्य-आदि प्रशस्त गुणों से परिपूर्ण ऐसे हे राजाधिराज! जिस पापका इस प्रकार से माहात्म्य वर्तमान है, सब आप को संसार में. कौनसी वस्तु असाध्य (अप्राप्य ) है? अर्थात् कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है-सभी पदार्थ प्राप्त होसकते हैं। आपके माहात्म्य के फलस्वरूप समुद्र, गृह की पावड़ियाँ या सरोषर होरहे हैं। हिमवान, सम और विन्ध्याचल-श्रादि कुलाचल मापके क्रीडापर्वत होरहे हैं। मका 'रविरमितभाग' इति क. || A टिप्पणी-अमितं मपर्यन्त-मर्यादारहितं भाग्यं पुण्यं यस्य तत्संबोधनं । 1. निन्दास्तुति-अलंकार । विमर्श-जहाँपर शम्मी से निन्दा प्रतीत होती हो. परन्तु पर्यवसान-कलितार्थ में स्तुति प्रतीत हो उसे मिन्दास्तुति अलंकार कहते हैं। सेनामुखं तु नासौरमित्यमरः । २. देव-परिसंख्या अलंकार । ३. दीपकालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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