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________________ परास्तिसकपम्पूकाव्ये बाल्मीकालापत्र सारस्वतरसनियादपान । पार्मार्थकामसमवृत्तचित्र सीधि मनोरथपति विच १९३ पसीनेवविलासनिरन्मोतपय रणकेलिशान्त रिपुवतिहरपसूरमसविरहामस्वजन्म मणिलील ॥ १९ ॥ विनतीसोन्मोतरिहितधीरामासनिवेश । शरणागतनपतिमनोभिलपितचिन्तामणिनिपुणगुणप्रतीत ॥ १९॥ भुषमन्यवानसौधम्म नीति प्रबन्धभामविज़म्भ । संग्रामरगति'काय वीरश्रीगीतयशाप्रबन्ध ॥ ११६ ॥ कोपि भाति सायामुपैति समवश्वपत्रासां समाति । शौपदीयांप्रतिसपरेन दोर्दण्डदलितारपुफुस्तकरीम् ॥१९७५ बस्तष सेवासु विकारमेति तस्मास्यागेव श्रीरपैति । कस्वां इसत्तिदेव नृपतिरामोधनयमतिः प्रयाति ॥ १९ ॥ सकरेगाताराणानि विपरफममानिमिभूषनानि । हरिकण्ठसमिबितानि विस्करदिविषारीडितानि ॥ भागाकाशमितानि नाम मनु न बाति धाम ॥ ११९ ॥ जिसका छत्र, लक्ष्मी के हस्त पर वर्तमान क्रीडाकमल सरीखा है। जो सरस्वती-संबंधी रस के क्षरण आधारभूत है । अर्थात्-जिससे श्रुतज्ञान रूपी रस प्रवाहित होता है। जिसकी चित्ति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों के समान रूप से पालन करने में (परस्पर में बाधा न डालती हुई) प्रवृत्त है। जिसका मन धर्मपात्रों ( महामुनि व विद्वन्मएडल-आदि ) और यापकों के मनोरथ पूर्ण करता है, ऐसे हे राजन ! श्राप सर्वोत्कर्ष रूप से वृद्धिंगत हो ॥१९।। जिसप्रकार चन्द्रमा का उदय, चन्द्रकान्त-मणियों से जल प्रवाहित करने में समर्थ है उसीप्रकार जो शत्रुत्रियों के नेत्ररूप चन्द्रकान्त-मणियों के प्रान्तभागों से अश्रुजल प्रवाहित करने में समर्थ है। जिसे संपाम-क्रीड़ाएँ प्यारी हैं। जिसप्रकार सूर्य-किरणों के संसर्ग से सूर्यकान्त-मणियों के पर्वतों से अनि उत्पन्न होती है उसीप्रकार जो शत्रुओं की युवती नियों के हृदयरूप सूर्यकान्तमणियों के पर्वतों से विरह रूप अग्नि को उत्पन्न करने की शोभा से युक्त है ।।१६४|जो नम्रीभूत राजाओं की हृदय-कमल की कणिकाओं में लक्ष्मीरूप स्त्री का प्रवेश करनेवाले हैं। जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न अभिलषित वस्तु के प्रदान करने में प्रवीण होने से विख्यात है उसीप्रकार जो दुःख निवारणार्थ शरण में आए हुए राजाओं के अभिलाषित वस्तु के प्रदान करने में प्रवीणता गुण के कारण विख्यात है ॥१६॥। जो तीन लोक को उसप्रकार उज्वल करता है जिसप्रकार पतले ( तरल) चूना-आदि शुभ्र द्रव्यों का घट वस्तुओं को शुद्ध करता है। जिसकी प्रवृत्ति विजनों द्वारा रचे हुए कीर्तिशास्त्र रूपी सूर्य की प्राप्ति के हेतु है। जिसने युद्धाङ्गण में मम (मस्तक रहित-शरीर) नमार हैं और जिसकीर्तिरूप सकवि-रचित शास्त्र वीर लक्ष्मी द्वारागान किया गया है।।१६६|जिसने त्याग और विक्रम की प्रसिद्धि से, विद्याधरों के इन्द्र आश्चर्यान्वित किये है और जिसने बाहुदण्डों द्वारा शत्रुसमूह के श्रेष्ठ हाथियों को जमीन पर पछाड़कर चूर्णित कर दिया है, ऐसे हे राजन् ! जो कोई पुरुष आपके साथ दुष्टता का वर्ताव करता है, वह यमराज के मुखरूपी कोल्हू की अधीनता प्राप्त माता अर्थान्–समें पेला जाने के फलस्वरूप मृत्यु-मुख में प्रविष्ट होता है ।।१९ हे आराधनीय राजन् ! जो राजा श्रापकी सेवा में विकृति (विमुखता) करता है, उसके पास से लक्ष्मी पहिले ही भाग जाती है। आपके साथ युद्ध करने में अपनी बुद्धि को नियन्त्रित (निश्चित करता हुआ जो राजा आप पर आक्रमण करता है, उसकी वृत्ति (जीविका ) नष्ट होजाती है ।।१९।। धैर्य के स्थान हे राजम् ! अहो! मैं ऐसी सम्मावना करती हूँ कि जो आपसे युद्ध करने का इच्छुक है. यह नष्ट जीविका-युक्त मानव, हाथों से अमि के अङ्गार खीचन्य चाहता है, शेषनाग की फणाओं में स्थित हुए मणियों से आभूषण निर्माण करने का इच्छुक है एवं सिंह की गर्दन की केसरों (केश-सटाओं) से चैमरों का निर्माण करके उनसे चॅमर ढोरने की अभिलाषा करता है और दिग्गजों के दाँत रूपी मूसलों से कीड़ा करना चाहता है तथा पुरुष-वाषनक्रम (उछलना या दौड़ना) से भाकारा की मर्यादा प्रमाण करना पाहता है।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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