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प्रथम आश्वास
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मात्रा ॥
तथा मुनिकुमारिकापि 'लक्ष्मीरामानङ्गः सपल कुछ कालविक्रमोतुङ्गः । कीर्तिविलासतमङ्गः प्रतापरङ्गश्चिरं जयतु ॥ १८८ ॥ उस्मारितारिसर्पः शरणागत नृपतिचित्तसंसर्पः । लक्ष्मीललामकूपस्वपतु चिरं नृपतिकन्दर्पः ॥ १८९ ॥ मुत्रनाब्ज सरस्वरगिर्धर्मांतर मिरुयतरुधरणिः । श्रीरमगीरवि सरणिर्मण्डलिक वामणिजात् ॥ १९० ॥ वर्णः ॥ कुपचन्द्र गृपतीन्य लक्ष्मी परकीर्ति सराष्टिपतिबुधवन । आ|| भुवनमभिमानधन चैन जय विहितसदर ॥ १९११ ॥ नृप महति भवति किंचिद्विशमि वक्तु गुणमखिलं नोचरामि । सिमरन यत्र का शक्तिः काचमणेर्हि तत्र ॥ १९२॥ विद्वजनों के गुणों का दरिद्रता रूप रोग नष्ट द्वारा उनकी सेवा करता है और जो राजाओं के
चतुष्पदी ||
कृत' - बुध जनक- अम-अर्थात् जिसने अर्थात जो विद्वानों के लिए धन-प्रदान रामचन्द्र - सरीखे हैं, ऐसे हे राजन् ! आप संसार में दीर्घकाल पर्यन्त चिरंजीवी होते हुए सर्वोत्कर्ष रूपसे प्रवृत्त ह । ॥ १८७ ॥
किया है । मध्य में श्री
तत्पश्चात् सर्वश्री अभयमति (क्षुल्लिकाश्री) ने प्रस्तुत राजा का निम्नप्रकार गुणगान करना आरम्भ किया -- ऐसे मारिदत्त राजा, जो प्रताप की प्रवृत्ति के लिए भूमिप्राय, लक्ष्मीरूपी कमनीय कामिनी का उपभोग करने में कामदेव, शत्रु-समूह की मृत्यु करने की सामर्थ्य के कारण उन्नत और कीर्ति के बिलास ( क्रीड़ा ) करने के लिए महल हैं, चिरकाल तक सर्वोत्कर्ष रूप से प्रवृत्त हों अथवा चिरायु हों ||१८|| जो शत्रुरूप सर्पों को भगानेवाले हैं और जिससे शरण में अथवा गृह पर आए हुए शत्रुओं के चित्त सन्तुष्ट होते हैं। जो लक्ष्मी के मस्तक के मध्यदेशवर्ती तिलक सहरा और राजाओं में कामदेव सरराखे हैं, ऐसे राजा मारिदत्त चिरकाल पर्यन्त ऐश्वर्यशाली हो ।। १८९|| जो पृथिवी मण्डल रूप कमल वन को उसप्रकार विकसित करता है जिसप्रकार सूर्य कमल-वन को विकसित करता है। जो धर्म रूप अमृत को उसप्रकार धारण करते हैं जिसप्रकार स्वर्ग अमृत धारण करता है। जो उदय रूप वृक्ष के लिए पृथिवी-समान है। अर्थात् जिसप्रकार पृथिषी वृत को उन्नतिशील करती है उसीप्रकार जो प्रजा की उन्नति करता है। जो लक्ष्मी रूप कमनीय कामिनी के संभोग का मार्ग और माण्डलिक राजाओं का शिखामणि ( शिरोरत्न ) है, ऐसा राजा मारिस चिरंजीवी हो || १९० || जो पृथिवी मण्डलरूप उत्पल समूह ( चन्द्र-विकासी कमल-समूह ) को उसप्रकार विकसित करता है. जिसप्रकार चन्द्रमा, कुवलय ( चन्द्र विकासी कमल समूह को विकसित करता है। जो राजाविराज और श्रीनारायण के अवतार हैं। जिसने कीर्तिरूपी फैलनेवाली अमृतवृष्टि द्वारा विद्वन्मण्डल- रूप बन उल्हासित (आनन्दित ) किया है। जिसका तीन लोक पर्यन्त स्वाभिमान ही धन है । जो धैर्य के मन्दिर और विद्वानों के रक्षक हैं, ऐसे हे राजन् ! आपकी जय हो । अर्थात् आप सर्वोत्कर्ष रूप से वर्तमान हों ॥ १६१ ॥
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हे राजाधिराज ! मैं आप महानुभाव का कुछ थोड़ा गुणगान करती हूँ; क्योंकि मैं आपका समप्र गुणगान करने को पार नहीं पा सकती । हे पृथ्वीपति ! जिस स्थान पर सूर्य का प्रकाश होरहा है, वहाँपर काँच की क्या शक्ति है ? अपि तु कोई शक्ति नहीं । अर्थात् यहाँपर सर्वश्री सुदत्ताचार्य सूर्यस्थानीय व मेरा यह भाई (लक अभयरूचि ) वीप्ति स्थानीय है, इन दोनों के सामने मैं काचमणि सी हूँ ।। १६२॥
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* घर' इति क, ग० । ↑ 'विरहसि क ग । 'सुप्रजन' इति ग० || 'आभुषनमहिमानचन' इति क १ – कुतरछेदितो सुत्रजनकामां विद्वज्जनगुणानां अमो रोगो वारिद्रय लक्षणो येन सः तषोकः । कम हिंसायाम् । इति धातोः प्रयोगात् । २- रूपकालंकार व पत्ताछन्द । ३. रूपकालंकार ४. रूपकालंकार ५. चतुष्पदी छन् ।