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________________ यशस्तिल्लकचम्पूकाव्ये अनाधितोपनगीतकर्ण वर्णस्थितिपालन दानकर्ण । कर्णप्रदेशविश्रान्तमयन भयनननृपतिसगावसदन ।। १८४ || सहनश्रितविपमधरोपकण्ठ कण्ठप्रशस्त इतमीतिकृष्ठ । लारीमुखासमोगईस कांट्युवतिसुरसावतंस ॥ १८६ ॥ सन्धीमकडमलकृतविलास चोलीनयनोत्पलवनविकास । पवनीनितम्बनम्बपदविदग्ध मल यसोरतिभरकेलिमुग्ध । वनवासिपोषिदधरामृताई सिंहलमहिलाननतिलकगई ॥ १८६ ॥ पद्धतिका ॥ इसि बुधजनकामः क्रोत्रितरामः सकलभुतपतिरजित | कृसबुधज कामः क्षिसिपतिरामस्स्वमिह चिरंजय त्रिभुत' ॥१८७ ममत्ता। जिसका वर्ण : यश) चारों समुद्रों के तटवर्ती उद्यानों में गाया गया है। जो ब्राह्मणादि वों को स्थिर करने के हेतु उनका पालन करता है। जो सुवर्ण-राशि का दान करने में कर्ण की तुलना करते हैं। जिसके नेत्र कानों के समीप पर्यन्त विश्राम को प्राप्त हुए हैं। प्रथाम्-जो दीर्घ लोचन हैं और नीतिमार्ग से नम्रीभूत हुए राजाओं के सद्धाय (आकुलता) को [ विश्राम देने में ] गृह स्वरूप हैं। अर्धान् नम्रीभूत राजाओं की प्राकुलता-निवारण के हेतु जो आधार भूत हैं ॥ १४ ॥ जो, असाध्य (जीतने के लिए अशक्य) पृथिवी के समीपवर्ती प्रदेशों को [जीतकर अपने गृह में लाया है। अथवा जिसने अपने गृह में स्थित असाध्य शत्रुओं को पर्वतों के समीप [ पहुँचाया है। अथवा टिप्पणी कार* के अभिप्राय से सदनश्रितविषमधरोपकाठ अर्थात्-जो विषमधरा ऊबड़-खाबड़ जमीम) के समीपवर्ती गृहों में स्थित हुए विषम ( असाध्य शत्रु) थे, वे आपके पराक्रम द्वारा ! पर्वत के समीपवर्ती हुए। जो मनोझ कण्ठ से सुशोभित है। जिसने नैतिक कर्तव्यों में कुण्ठित (शिथिल ) हुए ( नीतिसिम्ह पति करनेवाले प दमी में लगाट ! राजा लोग मार दिये हैं, अथवा तीक्ष्ण एंड द्वारा पीड़ित किये हैं। जो लाटी देश ( भृगुकच्छ देश ) की स्त्रियों के मुखकमलो का उसप्रकार संभोग (चुम्बनादि) करता है जिसप्रकार हंसपक्षी कमलों का उपभोग (चर्वण। करता है और जो कर्णाटक देश की युवतियों के साथ रविविलास करने में अवतंस ( कर्णपर) समान श्रेष्ठ है, ऐसे है मारिदत्त महाराज! आप सर्वोत्कर्ष रूप से वर्तमान हो ॥ १५॥ जिसने आन्ध्र (तिलग ) देश की सियों की कुधकलियों के साथ बिलास (कीड़ा) किया है। जिससे चोली ( समङ्ग । देश की कमनीय कामिनियों के नेत्र रूपी नील कमलों के वीच को प्रफुल्लिता प्राप्त हुई है। जिसने यवनी ( खुरासान-देशवी ) रमणीय रमणियों के नितम्बों ( कमर के पृष्ठ भागों) पर किये हुए नखरतों के स्थानों पर क्रीड़ा करने की चतुराई प्राप्त की है और जो मलयाचलवती कमनीय कामिनीयों की विशेष संभोग क्रीड़ा करने में कोमल है। अर्थात् - उनके अभिमायपालन में तत्पर है। जो वनों में निशस करनेवाली रमणियों के मोष्टामृत का पान करने में योग्य है और जो सिंहल (लेका दीप । देश की महिलाओं के मुखों पर तिलक रचना करने के योग्य है, ऐसे हे राजन् ! आपकी सर्वोत्कर्ष रूप से वृद्धि हो ॥ १६ ॥ जो समस्त पृथिवी-मण्डलवर्ती राजाओं द्वारा पूले गए है, अथवा जो उन्हें वश में करने के हेतु समुचित दण्ड की व्यवस्था करते हैं। जो तीन लोक में प्रसिद्ध हैं। जिनसे विद्वानों को अभीष्ट ( मनचाही ) वस्तु मिलती है। जिन्होंने पूर्वोक्त कमनीय कामिनियों का पभोग किया है। जिसने विदूजनों के ज्ञानादि गुणों की कामना (अभिलाषा) की है। अथवा *'सदनानिविषमधरोपण दिपमघराया उपकण्ठे सइने गृहे निता ये विषमास्ते धरे पर्वते श्रिताः। P--उपकष्टः समीपं । इति ह. लि.(क) प्रप्ति से संकलित-सम्पादक १. संकरालंकार र पोशमात्रा-चाली पदतिका इन्द ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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